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भी उसी रूप में चल रही है । मैं मानता हूँ, उस समय यह नीति, राजनीति का अंग थी, पर आज तो वह जीवन का अंग बन गई है । जो बातें कभी दुर्जन के लिए कही जाती थी, वे आज बड़े-बड़े सज्जन अपना रहे है । संस्कृत साहित्य में एक सूक्ति है
मुखं पद्मदलाकारं, वाणी चन्दन - शीतला । हृदयं कर्तरी - तुल्यं, त्रिविधं धूर्त - लक्षणम् ॥
किसी धूर्त का मुँह देखिए, ऐसा मालूम होता है कि मानो खिला हुआ कमल हो । मुख पर बड़ी प्रसन्नता, मुस्कान चमकती मिलेगी । और वाणी सुनिए तो चन्दन जैसी शीतल । बड़ी मीठी । किन्तु हृदय उसका कोई देख सके तो वहाँ छल-कपट की कैची चलती हुई मिलेगी, जो अच्छे से अच्छे मित्र को भी काटती चली जाती है । मन, वचन और कर्म की यह विषमता कभी धूर्त प्रपंची की विशेषता रही है । पर, आज तो सज्जन कहे जाने वाले व्यक्ति भी इन विशेषताओं में सबसे अग्रणी हो गए हैं ।
मैं आपसे कह रहा था कि राजनीतिज्ञ अथवा धूर्त बाहर में अपने रूप का संगोपन कर लेता है, अपने को छुपा लेता है, तो यह वर्तमान में जीवन-व्यवहार का उपशम है, वास्तविक उपशम नहीं है । यह उपशम तो और अधिक पतन का कारण है । साधना का उपशम इससे भिन्न है ।
उपशम क्या है ?
भीतर में राग व द्वेष की आग नष्ट नहीं होती, दबी रहती है किन्तु साधना के द्वारा क्षणिक शीतलता - वीतरागता प्राप्त हो जाती है,
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राजनीतिज्ञ अथवा धूर्त बाहर में
अपने रूप का संगोपन कर
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