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अधिक अन्तर्मुहूर्त का बताया गया है । वृत्तियाँ किसी रूप में एक बार दब सकती है पर जैसे ही समय आया कि वह पुनः उद्दीप्त हो उठती हैं। मन कितना चंचल है, भावना में लहरों की तरह कितनी उथल-पुथल होती रहती है- यह तो हम प्रतिक्षण अनुभव करते ही हैं। मन के इसी उद्दीपक रूप को ध्यान में रखकर उपशम सम्यक्त्व का कालमान भी अन्तर्मुहूर्त से अधिक नहीं माना है । इसका अभिप्राय यह है कि दबाई हुई वृत्तियाँ कुछ क्षण बाद उछल कर पुनः उद्दीप्त हो जाती हैं और फिर उसी पहले की औदयिक स्थिति में लौट कर चली जाती हैं ।
आगमों में बताया गया है कि साधक जब उपशम के मार्ग पर चल पड़ता है, तो वह वृत्तियों को दबाने के प्रयोग में लग जाता है । मनोविज्ञान की भाषा में कहें, तो जो वृत्तियाँ जागृत या चेतन मन में उबुद्ध होती हैं, उन्हें अवचेतन मन में डाल देता है । अवचेतन मन में स्थित वृत्तियाँ संस्कार बन कर छिप जाती हैं, जब कभी उन्हें उद्बुद्ध होने का अवसर एवं निमित्त मिलता है, तो वे पुनः भड़क उठती हैं और साधक के मन में विक्षेप, विघ्न उपस्थित कर देती हैं ।
कल्पना कीजिए- घर में चुपके से कोई चोर घुस आया हो, किसी अंधेरे कोने में सांस रोके दुबक कर बैठ गया हो और आपको पता न चले तो वहाँ आपके धन - माल की सुरक्षा कैसे रह सकती है ? आपको थोड़ा-सा असावधान देखा कि वह छुपा हुआ चोर अपना काम कर लेता है । जो घर में छुपा बैठा है और दांव लगाने की ताक में है, उससे कितनी देर सुरक्षित रहा जा सकता है ? उपशम भाव में वृत्तियों के चोर अन्दर में ही निष्क्रिय होकर छिपे रहते हैं, परन्तु कितनी देर तक ? अन्तर्मुहूर्त के बाद वे पुनः सक्रिय हो जाते हैं ।
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