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पीछे जो तमन्ना है, इच्छा है और भावना है, वही मुख्य है । इस तरह परिग्रह की आधार-शिला इच्छा है, वस्तु का अपने में कोई महत्त्व नहीं ।
यह तो आपको मालूम ही है कि संसार में जितने भी सम्प्रदाय हैं और उनमें दीक्षित होने वाले साधक हैं, सभी कुछ न कुछ उपकरण रखते हैं। सम्भव है, कोई कम रखे और कोई अपेक्षाकृत अधिक । मगर उपकरणों के सर्वथा अभाव में किसी का काम नहीं चल सकता । जब शरीर के साथ उपकरणों की अनिवार्य आवश्यकता है और वे रखे भी गए हैं तो उनके प्रति निर्ममत्व-भाव के अतिरिक्त और क्या सम्भव हो सकता है ? बस, यही ममत्व का अभाव अपरिग्रह है। इसके विरुद्ध अगर हम वस्तु को परिग्रह मानने चलेंगे, तो शिष्य भी परिग्रह हो जाएगा । ऐसी दशा में कोई भी अपरिग्रही मुनि दीक्षा कैसे दे सकता है
और शिष्य कैसे बना सकता है ? परन्तु हम देखते हैं कि प्राचीन काल में भी दीक्षाएँ दी जाती थीं और आज भी दीक्षाएँ दी जा रही हैं और इसी रूप से हजारों वर्षों से गुरु-शिष्य की परम्परा जारी है, आगे भी चालू रहेगी।
हाँ, यह जरूर है कि किसी को अपने शिष्य पर अगर मोह है, तो वह उसके लिए परिग्रह ही है ।
गणधर सुधर्मा स्वामी एक बार कहीं जा रहे थे। रास्ते में उन्हें एक लकड़हारा मिला । उसकी जिन्दगी किनारे पर जा लगी थी। सारे बाल सफेद हो चुके थे । वह सिर पर लकड़ियों का भार लादे, हाँफता-हाँफता जा रहा था । गणधर सुधर्मा स्वामी को बूढ़े की यह दशा देखकर बड़ी दया आई । दया-द्रवित हृदय से उन्होंने उससे पूछावृद्ध ! तुम्हारे परिवार में कौन है ? वृद्ध-मेरे परिवार में मैं ही हूँ, और कोई भी नहीं ।
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