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लगते हैं । मनुष्य की सभी इच्छाएँ कभी पूरी नहीं होती, यह संसार का अटल नियम है। जीवन में सदा ही अपूर्व एवं अतृप्त इच्छाओं की संख्या ही अधिक होती है । और वे अपूर्व इच्छाएँ मन को क्लान्त तथा व्याकुल करती रहती हैं। एक ओर उनके पूरी नहीं होने का दुःख, मानव के दिल और दिमाग को कचोटता रहता है, तो दूसरी ओर जिन परिस्थिति और शक्तियों के कारण उन इच्छाओं की पूर्ति में बाधा उपस्थित होती है, उनके प्रति मन में वैर और द्वेष की लपटें प्रज्वलित होने लगती हैं । कभी-कभी तो व्यक्ति को अपने आप से भी घृणा होने लगती है, फलतः ऐसी स्थिति में व्यक्ति स्वयं अपना ही सिर पीटने लगता है, आत्महत्या तक भी कर लेता है।
इस प्रकार इच्छाओं की पूर्ति नहीं होने के कारण मानव का मन सदा अशांत बना रहता है । किसी भी व्यक्ति की समस्त इच्छाएँ न कभी पूरी हुई हैं और न होंगी । यदि कोई पूर्णता का दावा करता है कि मेरी इच्छाएँ पूर्ण हो चुकी हैं, तो वह भ्रम में है, अपने को धोखा दे रहा है, जन-संसार से अपने अहं की प्रवंचना करता है।
__ वास्तव में सच्चाई तो यह है कि इच्छा की पूर्ति का आनन्द भी इच्छा के अभाव का ही आनन्द है । ऐसी स्थिति में इच्छाओं की पूर्ति के द्वारा आनन्द प्राप्त करना, ऐसी ही बात है, जैसे कोई अपने शरीर में चाकू मारकर पहले तो घाव पैदा करे और फिर मरहम पट्टी करने के बाद घाव के अच्छा होने पर आनन्द मनाए । यह तो निरी मूर्खता का परिचायक है । आखिर आनन्द तो घाव से पूर्व की स्थिति में आने पर ही होता है तो फिर घाव पैदा ही क्यों किया जाय । इसी प्रकार इच्छा की उत्पत्ति के पूर्व की स्थिति शांति और आनन्द की स्थिति है । और इच्छाओं को उत्पन्न करना चाकू मारकर घाव पैदा करने के समान है ।
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