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से मन को तृप्त करने की वृत्ति सर्व साधारण मनुष्य में होती है ।
। दूसरी प्रक्रिया यह है कि साधक कहे जाने वाले कुछ लोग इच्छाओं को त्याग, वैराग्य और संतोष के द्वारा पैदा ही नहीं होने देते । यदि कभी पैदा हो भी जाती है तो वहीं उनका दमन कर देते हैं। उनके मन की भूमिका कुछ विशिष्ट प्रकार की होती है । वहाँ इच्छाओं की फसल अनियमित और अवांछित नहीं होती, इसलिए उनको इच्छाओं की पूर्ति में न अहम् का उन्माद होता है और न पूर्ति के अभाव में संताप ही भोगना पड़ता है। पहली भूमिका के लोग इच्छाओं की पूर्ति में आनन्द मानते हैं, तो दूसरी भूमिका के लोग ठीक इसके विपरीत इच्छाओं के निरोध में आनन्द अनुभव करते हैं ।
मन जब तक शांत रहता है, तब तक न तो इच्छाओं की उत्पत्ति होती है और न कोई क्लेश एवं उद्वेग ही होता है । परन्तु जब अशांत मन में उत्पन्न इच्छाओं की पूर्ति के लिए कदम आगे बढ़ते हैं तो रुकावटें, कठिनाईयाँ और बाधाएँ उत्पन्न होती हैं । जीवन में सर्वत्र पक्की सड़कों की तरह व्यवस्थित स्थिति नहीं मिलती है, जिस पर आप अपनी इच्छाओं की मोटर को सुगमता से जहाँ चाहे दौड़ाते चले जाएं । जब कदम-कदम
पर बाधाएँ आएंगी, विघ्न उपस्थित होंगे तो
आपके मन को चोट पहुँचेगी, काँटे की तरह मनुष्य की सभी इच्छाएँ कभी पूरी
अन्दर में चुभन होगी और घृणा, द्वेष तथा
वैर की अभिवृद्धि होगी । इच्छा उत्पन्न होने नहीं होती, यह
के पूर्व की स्थिति शान्तिमय रहती है, परन्तु संसार का अटल
जब इच्छाओं के मार्ग में रुकावटें आती हैं, तो नियम है।
व्याकुलता होती है, फलस्वरूप क्रोध, अभिमान आदि अनेक विकल्प व्यक्ति को तंग करने
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