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साधक जीवन : समस्याएँ और समाधान साधना के क्षेत्र का एक प्रश्न हमारे सामने है । वह प्रश्न बहुत पुराना है और बहुत गहरा भी है । उसे सुलझाने के लिए जितने गहरे हम उतरते हैं, प्रश्न उतना ही और गहरा मालूम पड़ता है ।
इन्सान जब तक जल की ऊपरी सतह पर तैरता है, तब तक वह तैरता तो है; परन्तु जल की गहराई का पता उसे नहीं चल सकता । कभी-कभी ऐसा होता है कि जब हम समस्या पर विचार करते हैं, तो ऊपर की सतह पर तैरते रहते हैं। हम सोचते हैं कि कुछ चिन्तन-मनन कर रहे हैं, समस्या पर विचार कर रहे हैं, किन्तु वस्तुतः हम समस्या को छूकर छोड़ देते हैं, उसकी गहराई का अनुमान हमें नहीं होता ।
हमारे समक्ष साधक के अन्तर्मन की समस्या है। मनुष्य के मन में कुछ वृत्तियाँ होती हैं, कुछ संस्कार होते हैं, कुछ संस्कार जन्म-जन्मान्तर से चले आते हैं, कुछ नई वृत्तियाँ संस्कार का रूप धारण करती जाती हैं । जन्म-जन्मांतर के प्रश्न का उत्तर हम 'अनादि' के सिवाय अन्य किसी शब्द के द्वारा नहीं दे सकते । वृत्तियाँ अनादि नहीं होती, किन्तु उनका प्रवाह अनादि होता है । क्रोध एक वृत्ति है, उसकी आदि है । मान, लोभ आदि वृत्तियों की भी आदि है । किन्तु मन के भीतर इनका जो संस्कार है, वह प्रवाह रूप में अनादि काल से चला आ रहा है। वह प्रवाह कभी किसी रूप में मोड़ लेता है, तो कभी किसी रूप में ।
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