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नहीं, उनकी वृत्ति ऐसी नहीं थी कि यह शिष्य बन जाएगा, तो मेरी सेवा करेगा, पगचंपी करेगा या आहार-पानी लाकर देगा ! उनकी वृत्ति में वृद्ध के प्रति विशुद्ध करुणा का ही भाव था । उसे संघ में स्थान देकर उसके जीवन का कल्याण करना ही उनका मुख्य उद्देश्य था । यह थी, उनकी करुणा वृत्ति ।
भगवान् महावीर से पूछा गया- शिष्य परिग्रह है या नहीं ? भगवान् ने उत्तर दिया- शिष्य परिग्रह है भी और नहीं भी है। अगर कोई गुरु दीक्षा देकर शिष्य से यह आशा करता है या इस आशा से दीक्षा देता है कि यह गोचरी-पानी ला देगा, पैर दबा देगा, सेवा करेगा, तो यह
परिग्रह है । यदि यह मनोवृत्ति हो कि यह
साधु बनकर अपने जीवन का कल्याण करेगा, प्रत्येक युग में समय आने पर मुझे भी धर्म-सहायता देगा विविध और परस्पर और संघ की निष्काम सेवा करेगा, तो वह विरोधी मनोवृत्तियाँ परिग्रह नहीं है । पाई जाती रही हैं।
। प्राचीन काल में भी उपर्युक्त दोनों काल तो सब के
प्रकार की मनोवृत्तियाँ पायी जाती थीं, फिर लिए समान ही है।
चाहे वह सतयुग रहा हो या कलियुग । अच्छी मनोवृत्ति तो संस्कारी आत्मा में मिलती है ।
युग से उसका कोई विशेष सम्बन्ध नहीं है । त्रेता युग में राम पैदा हुए थे, तो क्या रावण पैदा नहीं हुआ था ? अगर वह राम का युग था, तो रावण का भी युग था । कृष्ण का युग था तो कंस का भी युग था । धर्मराज का युग था, तो दुर्योधन का भी युग था । प्रत्येक युग में विविध और परस्पर विरोधी मनोवृत्तियाँ पाई जाती रही हैं । काल तो सब के लिए समान ही है। जिसे आप सतयुग कहते हैं, उस युग में होने वाले अन्यायों और
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