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जैसे साधु को विचार करना चाहिए, वैसे ही श्रावक को भी विचार करना चाहिए कि यह रोटी कहाँ से आई है, कैसे आई है और किस रूप में आ रही है ? यह इस जीवन में प्रकाश दे सकती है या नहीं ? मेरी मर्यादा के अनुरूप है या नहीं ।
एक श्रावक ने प्रश्न किया था कि धन यदि न्याय से आता है, तो वह बुरा कैसे हुआ ?
मैंने अपनी पुरानी परम्परा का उल्लेख करते हुए कहा था कि धन दो प्रकार से आया करता है- पुण्यानुबन्धी पुण्य से और पापानुबन्धी पुण्य से । जब पुण्यानुबन्धी पुण्य से धन आता है, तब उसको पाकर धनवान की सकल वृत्तियाँ अच्छी हो जाती हैं, उसके विचारों और भावनाओं में पवित्रता आ जाती है और उसे उस धन का सदुपयोग करने के लिए विचार-बुद्धि और चिन्तन भी मिलते हैं, जब वह उस धन का जन-कल्याण के लिए उपयोग करता है, तब उसका मन खुशी से नाचने लगता है, वह अवसर की तालाश में रहता है कि जो कुछ पाया है, उसका मैं उपयोग करलूँ और जब अवसर मिलता है, तब वह भूखे को रोटी और नंगे को कपड़ा देता है अन्य किसी के लिए अपनी चीज का उपयोग करता है, तो आनन्द-विभोर हो जाता है । वह देने से पहले, देते समय और देने के बाद भी आनन्द की अनुभूति करता है । वह जब तक जीवन में रहेगा, आनन्द की लहर उसके जीवन से बहती ही रहेगी। वह देकर कभी पछताएगा नहीं ।
ऐसा धन पुण्यानुबन्धी पुण्य से आया है और आगे भी पुण्य की खेती बढ़ाता है । यह वह अन्न है, जो खाकर खत्म नहीं कर दिया गया है, किन्तु पहले पुण्य की खेती से आया है और आगे भी खेत में फसल
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