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आसक्ति : परिग्रह
जो साधना अन्तर से उद्भूत होती है और जीवन का अंग बन जाती है, वह शक्ति प्रदान करती है, जीवन को प्रगति की ओर ले जाती है; किन्तु जो साधना ऊपर से लादी गई है, वह जीवन का बोझ बन जाती है । उससे जीवन पनपता नहीं, बढ़ता नहीं; बल्कि उसकी प्रगति रूक जाती है ।
इस तथ्य को ध्यान में रखकर कोई भी साधक जब साधना के लिए उद्यत हो, तो उसे अपनी आन्तरिक तैयारी का विचार कर लेना चाहिए । इस आन्तरिक तैयारी के अनुसार ही साधना के पथ पर अग्रसर होना चाहिए ।
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जो साधक पूर्ण साधना के भार को उठा सकता है और उस भार को उठाकर गड़बड़ाता नहीं है, उस साधक के लिए अपूर्ण साधना का कोई अर्थ नहीं है । वह पूर्ण साधना के पथ पर चलता है और ऐसा साधक साधु कहलाता है । जो साधक अपनी समस्याओं में उलझा हुआ है, परिस्थितियों के कारण पूरे वजन को नहीं उठा सकता है, वह अल्प साधना के पथ का अवलम्बन लेता है, वह साधक श्रावक कहलाता है ।
यद्यपि साधक अल्प साधना के पथ पर चल रहा है, परन्तु उसका लक्ष्य तो वही है । अल्प साधना करता हुआ भी वह पूर्ण साधना
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