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है- हमारा भाग्य तो नहीं चला गया है, चोर चोर ही रहेगा एवं साहूकार साहूकार ही रहेगा । यह कहते हुए वह मुस्करा रहा है ! मैंने सोचा, इसने बड़ा सुन्दर सिद्धान्त बना लिया है ।
महेन्द्रगढ़ (पटियाला) में एक धनी मानी वेदान्ती सज्जन हमारे परिचय में आए । वे वेदान्त और जैनदर्शन आदि की चर्चाएँ किया करते थे। पहले तो साधुओं के पास उनका आना-जाना नहीं था, किन्तु हम पहुँचे तो वह आने लगे। उनके इकलौता लड़का था और वे गाँव के मालिक थे । उस एक लड़के पर ही उनका सारा दारोमदार था । वह लड़का बीमार पड़ा, तो वे उसका इलाज कराने के लिए बम्बई और कलकत्ता आदि कई जगह गए । पानी की तरह पैसा बहाया । यह हाल देख लोग टीका-टिप्पणी करने लगे। कहने लगे- वेदान्ती जी ! क्या यही वेदान्त का स्वरूप है ? मैंने उनसे कहा- भाई संसार में बैठे हैं, कर्तव्य तो करना ही पड़ता है । कोई अपने लड़के को यों ही कैसे मर जाने देगा ? यह तो संसार का व्यवहार है ।
आखिर, लड़का बच नहीं सका । बहुत प्रयत्न करने पर भी मर गया । वेदान्ती बड़े आदमी थे । गाँव वाले उनके यहाँ पहुँचे । बोलेपण्डितजी, बड़ा अनर्थ हो गया । आपके साथ बहुत बुरी बीती । एक ही लड़का था और वह भी नहीं रहा ।
इस प्रकार सान्त्वना देने वाले उन्हें रंज पैदा करने लगे, किन्तु वे स्वयं उन्हें सान्त्वना देने लगे- भैया ! हो क्या गया, जब तक उसका हमारे साथ सम्बन्ध था, रहा और जब सम्बन्ध टूटा, तो टूट गया । जो होना था, हो गया। आदमी क्या करे ? आदमी के हाथ में है क्या ? जब तक हमारे पास था, सब कुछ किया । बचाने की कोशिश की । सभी प्रयत्न
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