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कारण किया जाता है; सारी जिन्दगी ढ़ोने के बाद भी वह इन्सान के मन में कोई उल्लास या प्रकाश पैदा नहीं कर सकता । यही कारण है कि आज के जितने भी धर्म, परम्पराएँ और पंथ हैं, उन सब के क्रिया-काण्ड निस्तेज हो गए हैं और वे मानव-जाति के अभ्युदय के उतने सशक्त साध न नहीं रहे हैं, जितनी उनसे आशा की जाती है। उनकी इस निस्तेजता में दबाव का भी हाथ है । अनिच्छा से धर्म नहीं होता ।
हाँ, तो भगवान महावीर ने आनन्द पर कोई दबाव नहीं डाला कि वह अपनी प्राप्त सामग्री या सम्पत्ति में से किंचित् कम कर दे । आनन्द के पास जितनी वस्तुएँ थीं, उसने सब रख ली और सिर्फ अप्राप्त वस्तुओं का त्याग किया । अब प्रश्न यह है कि जो चीज प्राप्त ही नहीं थी, उसका त्याग किया, तो क्या त्याग किया ? उस त्याग का अर्थ ही क्या हैं ?
लेकिन आनन्द ने ऐसा ही त्याग किया है । वह कोई साधारण श्रावक नहीं था । उसकी मुख्य दस श्रावकों में गणना की गई है। इसके अतिरिक्त जिनके समक्ष त्याग किया गया है, वह भी कोई साधारण व्यक्ति नहीं थे । साक्षात् महाप्रभु महावीर के समक्ष यह त्याग किया गया है । अतएव यह तो असंदिग्ध है कि आनन्द का त्याग कोई ढोंग नहीं है, दंभ नहीं है, कोई फरेब नहीं है । आनन्द ने जो त्याग किया, उससे अपरिग्रह आया है, तो हमें अब इसी रोशनी में सोचना है कि वास्तव में परिग्रह क्या है ? वस्तु परिग्रह है या वस्तु की आकांक्षा परिग्रह है ?
सूत्र के शब्दों पर ध्यान दिया जाए, तो वहाँ एक महत्वपूर्ण और ध्यान आकर्षित करने वाला शब्द हमें मिलता है। शास्त्र में कहा गया है'इच्छा परिमाणं करेइ ।' अर्थात् आनन्द इच्छा का परिमाण करता है ।
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