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नहीं है, फिर भी उनसे कम परिग्रही नहीं है। संभव है, उसकी एक भी स्त्री न हो, लेकिन उसने वासना का परित्याग नहीं किया है, तो वह संसार की स्त्रियों का परिग्रही है ।
यही सिद्धान्त की बात है । इस प्रश्न को दार्शनिक कसौटी पर कस कर देखते हैं । मात्र ऊपर तैरते रहें, तो जीवन का आनन्द जिस गहराई में है, वह गहराई नहीं मिलेगी ।
__ भगवान् महावीर का महत्वपूर्ण सन्देश यही आया कि सब से पहले इच्छाओं को कम और सीमित करना चाहिए । यही कारण है कि शास्त्र के मूल-पाठ में इच्छा के परिमाण की बात आई है । इच्छा का परिमाण कर लेने से वस्तु का परिमाण अपने आप हो जाता है । पहले अनागत के प्रवाह को रोकना आवश्यक है ।
इस प्रकार अप्राप्त वस्तु नहीं, बल्कि अप्राप्त वस्तु की इच्छा परिग्रह है, प्राप्त वस्तु के विषय में भी यही बात समझनी चाहिए । अर्थात् प्राप्त वस्तु की इच्छा ही परिग्रह है । इच्छा का अभिप्राय यहाँ पर आसक्ति से है । प्राप्त वस्तुओं में आसक्ति न होना अपरिग्रह है । यदि यह अर्थ न लिया जाए और परिग्रह का अर्थ वस्तु लिया जाए, तो आनन्द के परिग्रह छोड़ने का कुछ अर्थ ही नहीं रहता, क्योंकि उसने किसी भी प्राप्त वस्तु को नहीं छोड़ा है । फिर भी उसने श्रावक के अनुरूप परिग्रह त्याग किया है, तो इसका अर्थ यही हो सकता है कि उसने इच्छा या आसक्ति का त्याग किया है । इसलिए इच्छा ही वास्तव में परिग्रह है।
परिग्रह होने और न होने के लिए यह आवश्यक नहीं कि वस्तु है या नहीं है; किन्तु इच्छा का होना और न होना आवश्यक है । अर्थात्
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