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उपेक्षा, जिसकी ममता का उसने त्याग किया है, वह अपरिग्रह है ।
किन्तु एक धनी व्यक्ति है और उसके पास करोड़ों की सम्पत्ति है, वह परिग्रह की मर्यादा करते समय एक अरब की मर्यादा करे, तो यह कोई सिद्धान्त नहीं है । ऐसा करने से इच्छापरिमाण-व्रत के शब्दों का पालन भले हो, पर व्रत के मूल उद्देश्य का पालन नहीं होता, क्योंकि जहाँ तक जीवन-निर्वाह का प्रश्न है, उसके लिए करोड़ों की सम्पत्ति भी अधिक और अनावश्यक है; फिर वह उसे और क्यों बढ़ाना चाहता है ? अगर वह बढ़ाना चाहता है, तो उसकी इच्छा पर ब्रेक कहाँ लगा है ? दरिद्र की बात तो समझ में आ सकती है, परन्तु इस धनी की बात समझ में नहीं आती।
आखिर व्रती और अव्रती में कुछ अन्तर होना चाहिए और वह सकारण होना चाहिए । व्रत लेने से पहले मनुष्य में जितनी तृष्णा, लालसा और ममता थी और धन प्राप्ति के लिए हृदय में व्याकुलता थी, वह व्रत लेने के बाद कम होनी चाहिए। अगर वह कम नहीं हुई हैं और ज्यों की त्यों बनी हुई है, तो व्रत लेने का उद्देश्य पूरा नहीं हुआ है । करोड़ों की सम्पत्ति होने पर भी और इच्छा परिमाण-व्रत लेकर भी जो रात-दिन हाय पैसा, हाय पैसा, किया करता है और अरबपति बनने के लिए मरा जा रहा है; कहना चाहिए कि उसने इच्छापरिमाण-व्रत का रस नहीं चखा, उसके माधुर्य का रसास्वादन नहीं किया । उसके अन्तर्जीवन पर उस व्रत का कोई प्रभाव नहीं पड़ा । वह अब भी परिग्रह को विष नहीं, अमृत समझ रहा है; क्योंकि जीवन निर्वाह के लिए और संचय की आवश्यकता न होने पर भी वह संचय में निरत रहता है । रात-दिन समेटने में लगा है।
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