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खेतानजी बोले- हम यहां बैठे-बैठे अपने घर की भी व्यवस्था नहीं कर पाते, तो गौ-शाला की व्यवस्था कैसे करेंगे ? गाँव वालों ने कहा- हम तो आपके भरोसे पर ही आए हैं । खेतानजी - देखो, आप लोग इतनी दूर से मेरे भरोसे आए, तो मैं यही कर सकता हूँ कि कुछ रकम दे दूँ । पर व्यवस्था वगैरह तो मुझसे कुछ हो नहीं सकेगी। पहले आप लोग उस गद्दी से लिखा लाओ, उसके बाद मैं लिख दूँगा । कलकत्ते में ही उसी गाँव के एक दूसरे सेठ की दुकान और थी । गाँव के लोग वहाँ पहुँचे, तो सेठजी ने कह दिया- पहले उन्हीं से लिखा लाओ । वही बड़ी गद्दी है ।
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बेचारे गाँव वालों ने दो-चार बार चक्कर काटे, परन्तु किसी ने भी रकम न चढ़ाई। दोनों ओर से वही उत्तर मिलता था। वे सोचने लगे, ये क्या करेंगे ! यह उस पर और वह इस पर टाल रहा है । गौ-माता के नाम पर थोड़ा बहुत देना है, वह भी नहीं दिया जाता । सब आशा निराशा हो में परिणत हो गई । फिर भी उनके मन में अभी आशा की क्षीण रेखा थी । वे खेतान सेठ के पास आए कहने लगे- अब आप कुछ देना चाहते हों दे दें, हम तो फिरते-फिरते हैरान हो गए। अब आपसे कुछ नहीं कहेंगे । जो कहना था, सब कह दिया है ।
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खेतान जी के मन में अन्तर्जागरण हुआ । अरे, ये मेरे भरोसे आए हैं । कहाँ तो मैं गरीब का लड़का था, कहाँ आज लाखों का कारोबार लेकर बैठा हूँ । मेरे घर में क्या था ! कुछ नहीं । फिर भी साहस करके अपने हाथों इतना पैसा कमाया है। पैसा तो हाथ का मैल है । यह अवसर क्या बार-बार हाथ आने वाला है ? मैं अपने ग्राम वालों को निराश नहीं करूँगा ! और इसके बाद सेठजी ने एक धोती, लोटा और डोर हाथ में लेकर दुकान से नीचे उतरते हुए कहा - लो, मैं यह
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