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और उस धन को पुण्यार्थ व्यय न करके पाप प्रभो ! मुझे धन में ही खर्च करता है। मिले, तो उसके साथ
मनुष्य धन पाता है, तो उसमें उसका सदुपयोग
सद्भावनाएँ भी जागृत होनी चाहिए, जिससे करने की बुद्धि भी मिले। मेरे जीवन का
वह अच्छे रूप में उसे खर्च कर सके और भी निर्माण हो,
उसके जहर को अमृत का रूप प्रदान कर
सके । समाज तथा परिवार का भी निर्माण हो। पुराने आचार्यों की गाथाओं में ऐसी
| प्रार्थनाएँ भी आती है कि प्रभो ! मुझे धन
मिले, तो उसके साथ उसका सदुपयोग करने की बुद्धि भी मिले । मुझे सम्पत्ति मिले, किन्तु ऐसी सद्भावना भी मिले कि मैं उसका उपयोग कर सकूँ- उसे भले काम में लगा सकूँ । उसका ऐसा उपयोग कर सकूँ कि मेरे जीवन का भी निर्माण हो और समाज तथा परिवार का भी निर्माण हो । भगवन् ! ऐसी वृत्ति मुझे देना ।
भारतीय ग्रन्थों में ऐसे उल्लेख मिलते हैं। उनका उद्देश्य यही है कि मनुष्य जब तक गृहस्थी में रह रहा है, उसे सम्पत्ति की आवश्यकता रहती ही है, परन्तु जब सम्पत्ति मिले, तो उपभोग करने की वृत्ति भी मिलनी चाहिए । प्राप्त सम्पत्ति का सदुपयोग करके जो अपने पथ को प्रशस्त, उज्ज्वल और मंगलमय बना लेता है, जो अपनी सम्पत्ति को अपने जीवन निर्माण में सहायक बना लेता है, उसी का सम्पत्ति पाना सार्थक है । अपरिग्रह का आदर्श यही है कि जो त्याग दिया सो त्याग दिया । उसकी आकांक्षा करने की आवश्यकता नहीं । किन्तु जो रख लिया गया है, उसका उपयोग किस प्रकार किया जाए- सोचना तो यह है । और यही महत्व की बात है ।
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