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ठीक बात पर पहुँच गए हो । तुमने वस्तुस्थिति को समझ लिया है।
___ मनुष्य का मन विश्व की समस्त सम्पत्ति पाने पर भी शान्त होने वाला नहीं है। इस सत्य का जीवन में हम किसी भी समय अनुभव कर सकते हैं। संसार में एक तरफ वे साधन हैं, जिनके लिए इच्छा पैदा होती है, और मनुष्य उस इच्छा की पूर्ति के लिए उन साधनों को ग्रहण कर लेता है । मगर उनसे इच्छा की पूर्ति नहीं होती बल्कि और नवीन इच्छा उत्पन्न हो जाती है । नवीन साधनों को ग्रहण करता है । लेकिन फिर वही हाल होता है । फिर कोई नयी इच्छा उत्पन्न होती है, तो इच्छाओं की पूर्ति करते जाना, इच्छाओं की आग को शान्त करना नहीं है- इस तरीके से आग बुझती नहीं, बढ़ती ही जाती है । अतएव इच्छा पूर्ति का मार्ग कोई कारगर मार्ग नहीं है । यह धर्म का मार्ग नहीं है । यह तो संसार का मार्ग है और इससे शान्ति नहीं मिल सकती ।
इस विषय में जैन धर्म का मार्ग यह है कि इच्छा की शान्ति धन से नहीं होगी। वस्तु प्राप्त करने से इच्छा शान्ति नहीं होगी । इच्छा की आग जब भड़कने लगे तो सन्तोष का जल उस पर छिड़किए, वह आग निश्चय ही शान्त हो जाएगी । आपके मन का दौड़ना रुक जायेगा तो, आपकी इच्छाएँ भी सिमट कर उसके किसी कोने में समा जाएँगी । यही है, इच्छाओं को मिटाने का राजमार्ग ।
यह दृष्टि लेकर अगर जीवन में चलेंगे, तो अपरिग्रह का व्रत आपके ध्यान में आ जाएगा । वास्तव में अपरिग्रह का अर्थ भी यही है। मान लो, कोई सम्राट् है, या सम्पत्तिशाली है, और वह अपने आपमें ऐच्छिक गरीबी धारण करता है, भोग के सभी साधन एवं सम्पत्ति-सम्पन्न होते हुए भी अपनी इच्छाओं पर अंकुश लगाता है, स्वयं में गरीबी के भाव पनपाता है, तो इसका अर्थ है कि वह अपरिग्रह के व्रत को भली
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