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मैं साधु और गृहस्थ दोनों के विषय जन-मानस पर | में कह रहा हूँ । साधु यदि अपनी भूमिका साधक के निर्मल | में रहना चाहते हैं, तो उन्हें पूर्ण रूप से विचार और पवित्र
| अपरिग्रह का महाव्रत धारण करना ही आचार का ही
होगा । फिर बाहर से ही अपरिग्रही होने से प्रभाव पड़ता है।
काम नहीं चलेगा, अन्तर में भी उसे अपरिग्रही
बनना पड़ेगा । परिग्रह की वासना न रहने का लक्षण यह है कि व्यक्ति की निगाह में राजा और रंक तथा धनवान्
और निर्धन, एक रूप में दिखाई देने चाहिए । जो किसी भी धनी के सामने नतमस्तक हो जाता है, उसकी खुशामद करता है, और हृदय में उनकी महत्ता का अनुभव करता है, तो समझना चाहिए कि उसके भीतर पूरी अपरिग्रह-वृत्ति का उदय नहीं हुआ है । धन की महत्ता को वह भूला नहीं है । वह ‘सम-तृण-मणि' का विरुद नहीं प्राप्त कर रहा है । जिसका जीवन पूर्ण रूप से निस्पृह बन जाता है, वह धन, वैभव से कभी प्रभावित नहीं होता, और जो धन-वैभव से प्रभावित नहीं होता, वही जगत् को अपने उच्च आचार और पवित्र विचार से प्रभावित करता है । जन-मानस पर साधक के निर्मल विचार, और पवित्र आचार का ही प्रभाव पड़ता है ।
__ साधु के अतिरिक्त दूसरे साधक गृहस्थ-समाज में से होते हैं । गृहस्थ पूरी तरह परिग्रह का त्याग नहीं कर सकता, तो उसे सीमा बनानी चाहिए । अपनी इच्छाओं को कम करना चाहिए । खाना होगा तो इतना खाऊँगा, पहनना होगा, तो इतना पहनूँगा, मकान रखना होगा, तो इतने रखूगा और पशु रखने होंगे, तो इतने रखूगा इस प्रकार अपने जीवन के
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