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साधु का मार्ग अहिंसा और सत्य का मार्ग है, तो श्रावक का मार्ग हिंसा और असत्य का है | श्रावक बनने के लिए क्या हिंसा का आचरण करना चाहिए ? असत्य का सेवन करना चाहिए ? और मेरे इन प्रश्नों के उत्तर में आप कहेंगे- नहीं। तो, वास्तविक बात यह है कि जो मार्ग साधु का है, वही गृहस्थ एवं श्रावक का भी है। साधु की अहिंसा गृहस्थ की अहिंसा से अलग नहीं है । और न दोनों के सत्य के रूप-रंग में ही कुछ अन्तर है ।
अलबत्ता, यह सही है कि गृहस्थ दुनियादारी के बन्धनों को लेकर चलता है, मर्यादा बांधकर चलता है, इसलिए उसके कदम तेज नहीं पड़ पाते । साधु के ऊपर समाज और देश का व्यवहारिक उत्तरदायित्व नहीं होता, दूसरों की कोई बड़ी जबाबदारी नहीं होती, केवल अपने जीवन का उत्तरदायित्व होता है । इस रूप में वह हल्का होता है, लघुभूत-विहारी होता है, इस कारण साधु के कदमों की गति भी तेज होती है । इस प्रकार एक की गति मंद और दूसरे की तीव्र होती है, परन्तु दोनों के मार्ग में कुछ भी अन्तर नहीं है
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अगर दोनों के मार्ग में अन्तर मान लिया, तो बड़ी गड़बड़ होगी । साधु की साधना का लक्ष्य मोक्ष है और मोक्ष मार्ग में ही वह गति करता है । तो गृहस्थ का मार्ग, साधु के मार्ग से यदि भिन्न है, तो वह मोक्ष मार्ग से भिन्न और परम उपयोगी मार्ग फिर कौन-सा है ? मोक्ष मार्ग नहीं है तो क्या संसार मार्ग है ? आखिर, श्रावक धर्म की साधना का फल क्या है ? क्या श्रावक-धर्म संसार अर्थात् जन्म-मरण की वृद्धि करने वाला है ? क्या वह मोक्ष का अधिकारी नहीं है ?
संसार का मार्ग आनव का मार्ग है और मोक्ष का मार्ग संवर का मार्ग है | श्रावक की अहिंसा और सत्य आदि की साधना को संवर में
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