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सम्यग्ज्ञान नहीं आएगा और जब तक सम्यग्ज्ञान नहीं होगा तब तक सत्य की ज्योति के दर्शन नहीं होंगे, संसार और मोक्ष का भेद समझ में नहीं आ जाएगा और जब तक दोनों के स्वरूप का विश्लेषण करके नहीं समझ लोगे, तब तक आचरण क्या करोगे ? अर्थात् ज्ञान के बिना चारित्र नहीं हो सकता । कहा है
अगुणिस्स नत्थि मोक्खो, नत्थि अमोक्खस्स निव्वाणं।
जिसे सम्यक् चारित्र की प्राप्ति नहीं हुई है, उसे मोक्ष भी नहीं प्राप्त हो सकता और मोक्ष प्राप्त हुए बिना पूर्ण-शान्ति नहीं मिल सकती । मोक्ष के लिए तीनों की साधना परम आवश्यक है ।
इस प्रकार चाहे कोई साधु हो या गृहस्थ हो, दोनों के लिए यही मार्ग है, यही विधान है। साधु भी इसी रत्न-त्रय की आराधना करता है और श्रावक भी इसी रत्न-त्रय की आराधना करता है । एक की आराधना सर्वाराधना है और दूसरे की आराधना देशाराधना है, मगर आराधना दोनों की ही है और है भी रत्न-त्रय की ही ! तो, साधु और श्रावक का मार्ग फिर अलग-अलग किस प्रकार हो सकता है ?
___ जिस मार्ग पर साधु चल रहा है, उसी मार्ग पर श्रावक भी चल रहा है । साधु आगे-आगे चल रहा है और श्रावक पीछे-पीछे और धीमे-धीमे । तो, दोनों में आगे-पीछे का अन्तर है, मार्ग का भेद नहीं है। आगे-पीछे चलना अपनी शक्ति पर निर्भर करता है ।
कहा जा सकता है कि गृहस्थ चलता तो है, पर संसार में ही अटक जाता है । स्वर्ग में चला जाता है या अन्यत्र कहीं ओर ? वह सीधा मोक्ष में नहीं पहुँचता है । यह ठीक है, क्योंकि उसकी साधना अपूर्ण होती है, वह अपनी साधना को पूर्ण नहीं कर पाता है और जब
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