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सब जीवन का भार है । चाहे कोई व्रत हो, नियम हो या प्रत्याख्यान हो, यदि वह सहज भाव से उद्भूत नहीं हुआ है और बलात् लादा गया है, तो वह भी जीवन के ऊपर भार ही है। यों तो अहिंसा, सत्य आदि सभी व्रत भी जीवन का महान् कल्याण करने वाले हैं और जीवन की समस्याओं का हल करने के लिए बड़े महत्वपूर्ण साधन हैं, पर वे बलात् नहीं लादे जाते, ऊपर से नहीं लादे जाते, बल्कि अन्तरंग से ही उद्भूत होते हैं। ऐसा न हुआ और ऊपर से लादे गए तो समझ लीजिए कि वे पानी में पड़े हुए पत्थर हैं ।
पत्थर पानी में डाला जाता है, तो वहाँ पड़ा रहता है और वर्षों तक पड़ा-पड़ा भी घुलता नहीं है । वह पानी का अंग नहीं बनता । तो जब तक पत्थर पानी में घुलकर उसी के रूप में न मिल जाए, पानी न हो जाए, तब तक पानी और पत्थर अलग-अलग हैं । हाँ, अगर मिश्री की डली पानी में डालोगे तो वह तुरन्त घुलकर पानी के साथ मिल जायेगी, एक रस हो जायेगी और उस पानी से एक मधुर पेय तैयार हो जायेगा, जो पीते ही शान्ति प्रदान करेगा ।
यही बात जीवन की साधना के सम्बन्ध में है । जो साधना जीवन में पत्थर की तरह पड़ी है और जीवन में घुल-मिल नहीं रही है, जीवन के साथ एकरस नहीं हो रही है, वह जीवन की वास्तविक साधना नहीं है। पुराने जमाने में ऐसी साधनाएँ बहुत की जाती थीं, किन्तु जैन धर्म ने उनका विरोध किया । वे साधनाएँ केवल कष्ट देने के लिए थीं, उल्लास और आनन्द देने के लिए नहीं । इसीलिए जैन धर्म ने देह-दंड को कोरा कायाक्लेश कह कर उसके प्रति अपनी अरुचि प्रकट की ।
जीवन में सच्चा चारित्र-बल उत्पन्न होना चाहिए और जब तक
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