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है। एक तरफ लोगों से छीना जाए और दूसरी तरफ उन पर बरसाया जाए, तो इसके परिणामस्वरूप अहंकार का पोषण होता है । अर्थात् जनता से ही लेना और फिर जनता को ही देना, सर्वस्व का दान नहीं है । और फिर लेना बहुत है और देना कम है, लिये में से भी बचा लेना है, तो इसका अर्थ यही है कि छीना-झपटी की जा रही ! यह दान नहीं कहा जा सकता। 06
जैनधर्म ने दान को भी महत्व दिया है; दान पैर में कीचड | परन्तु दान से पहले अपरिग्रह को महत्व लगने पर धोना है | दिया है । दान पैर में कीचड़ लगने पर और अपरिग्रह कीचड़ धाना ह आर अपारग्रह काचड़ न लगन दना न लगने देना है।
है। नीतिकार कहते हैं- प्रक्षालनाध्दि पंकस्य, दूरादस्पर्शनं वरम् । कीचड़ को धोने की
अपेक्षा, न लगने देना ही अच्छा है । इसका अर्थ यह नहीं कि पैर में कीचड़ लग जाए तो लगे ही रहने देने का समर्थन किया जा रहा है । असावधानी से या प्रयोजन विशेष से कीचड़ लग जाने पर उसे धोना ही पड़ता है, किन्तु ऐसा करने की अपेक्षा श्रेष्ठ तरीका कीचड़ न लगने देना ही है । इसी प्रकार इच्छाओं का निरोध करना और अपरिग्रह व्रत को धारण करना उत्तम मार्ग है, किन्तु जब इस मार्ग पर चलने की तैयारी नहीं है और धन का उपार्जन करना नहीं छूटता है, अथवा अपरिग्रह व्रत को अंगीकार करने से पहले जो संचय कर लिया गया है, तो दान कर देना भी अच्छा ही है । दान में अहंकार का खतरा है और अपरिग्रह में ऐसा कोई खतरा नहीं है । लेकिन त्याग का अहंकार भी बुरा है। अतएव जैनधर्म का यह आदेश है कि अपनी इच्छाओं के आगे
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