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खाते रहे हो, वही आगे खाना । अब तक तो जोड़ते ही जोड़ते रहे हो ! तुमने खाया तो कुछ भी नहीं ।
तहसीलदार ने एक रुपया अपने पास से उसके हाथ पर संकल्प करने को रख दिया, तो उसने उसे लेकर अंटी में रखने का प्रयत्न किया । आखिर वह मर गया और सरकार ने उसके धन पर अधिकार कर लिया । इस प्रकार के संग्रह का लाभ क्या है ?
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कुछ लोगों का ऐसा ही दृष्टिकोण होता है । वे समाज और राष्ट्र में से कट कर अपने आप में ही सीमित हो जाते हैं । और कुछ लोग उनसे भी गये-बीते हैं । वे अपने आपसे भी निकल जाते हैं । और अपने जीवन को भी नहीं देखते, शरीर की आवश्यकताओं को भी पूर्ण नहीं करते हैं । उनका काम केवल संचय ही संचय करना रह जाता है । वह शरीर से भी भिन्न किसी और तत्त्व में बँध जाता है ।
वह तत्त्व परिग्रह है और मन की वासना है, वही मनुष्य को तंग करती है । प्रश्न भूखे मरने का नहीं, वास्तव में अपरिग्रह की भावना मन में नहीं आई है । अपरिग्रह की भावना जब तक नहीं आती, तब तक इन्सान बाहर नहीं निकलता है, अपने टूटे-फूटे खंडहर से बाहर नहीं आता है। तो, जब तक मनुष्य टूटे मिट्टी के पिण्ड में से बाहर न आ जाएगा - तब तक काम नहीं चलेगा ।
कुछ विचारकों का मत है कि इच्छाओं का परिमाण भले न किया जाए, मगर इच्छाएँ कम रखी जाएँ, कमाई बन्द न की जाए, किन्तु कमाई कर-कर के दान देते जाएँ । वे समझते हैं कि दुनियाँ भर की लक्ष्मी कमा कर दान दे देना बड़ा भारी पुण्य है । किन्तु, भगवान् महावीर की दृष्टि बड़ी विशाल है । उस दृष्टि के अनुसार पुण्य का यह ढंग प्रशस्त नहीं
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