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इस प्रकार की ऊँची भावना से दिए जाने वाले दान से अहंकार का जहर उत्पन्न नहीं होता, बल्कि वह दान जीवन के विष को दूर कर देता है और जीवन को अमृतमय बनाता है। जिस समाज और जिस देश में ऐसा दान होता है, समाज और देश के साथ ही दाता भी ऊँचा उठता है ।
आशय यह है कि मनुष्य का सर्वप्रथम कर्तव्य है कि वह अपने जीवन की आवश्यकताओं को भली-भाँति समझे और उनसे अधिक के लिए अपनी इच्छाओं पर ब्रेक लगा ले । पहले जो अधिक इकट्ठा कर चुका हो, उस पर से भी अपना प्रभुत्व हटाने के लिए दान दे और इस तरह परिग्रह का परिमाण कर ले । गृहस्थ अपनी मर्यादा के भीतर रहकर जब उपार्जन करे, तब इस प्रकार करे कि खुद भी खा सके और दूसरे भी खा सकें । यह नहीं कि ऐसा उदरंभरी बन जाए कि दूसरों का हक छीन छीन कर आप हड़प जाए। जब तक यह वृत्ति उत्पन्न नहीं होगी, जीवन में शान्ति नहीं मिलेगी । विष खाने पर शान्ति कैसे मिल सकती है ?
परिग्रह - परिमाण, जैसे व्यक्ति के जीवन को शान्त, संतोषमय और सुखमय बनाता है, उसी प्रकार राष्ट्रों के जीवन को भी । जो सिद्धान्त वैयक्तिक जीवन के लिए है, वही राष्ट्र पर भी लागू होता है । जो नियम व्यक्ति के लिए होते हैं, वे ही समाज एवं राष्ट्र के लिए भी होते हैं ।
हमारे यहाँ आचार्य संघदास गणी एक महान् भाष्यकार हो गए हैं । जब हम उनके भाष्यों का अध्ययन करते हैं, तब गद् गद् हो जाते हैं । कहीं-कहीं वे इतने भाव - गाम्भीर्य में उतरे हैं कि कहा नहीं जा सकता । संसार में रह कर क्या किया जाए, किस रूप में रहा जाए और
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