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यही महत्वपूर्ण बात है और इसी में से अपरिग्रह व्रत निकल कर आया है । पहले अपने जीवन की आवश्यकताओं को समझो और आवश्यकताओं से अधिक धन का संचय करना बन्द कर दो । भविष्य का संग्रह बन्द नहीं होगा, तो अपरिग्रह का परिपालन कैसे होगा ? - इसके बाद दान का नम्बर आता है। दान इकट्ठे किए हुए धन का प्रायश्चित है । दान के लिए मैं प्रायश्चित शब्द का प्रयोग कर रहा हूँ, तो बिना समझे बूझे नहीं । वास्तव में आप दान करते हैं, तो दूसरों पर कोई बड़ा भारी एहसान नहीं कर रहे हैं । अगर आप त्याग की भावना से दान करते हैं और देय वस्तु पर से ममता त्यागना चाहते हैं, तब तो आपका दान प्रशस्त है और आप अपने ऊपर ही अनुग्रह करते हैं, तो उसके लिए दूसरों पर एहसान जतलाना उचित नहीं है। यदि कोई प्रतिष्ठा के लिए, कीर्ति के लिए और नेकनामी के लिए दान |
| यदि कोई प्रतिष्ठा, देता है, तो उस दान में चमक नहीं है। क
कीर्ति और नेकनामी उससे दोनों ओर अंधकार बढ़ता है। इसके लिए दान दता है, विपरीत उनके मन में वह दान घणा की तो उस दान में चमक आग को जन्म देता है । जनता अनुभव
नहीं है। करती है कि इधर हमको लूटा जाता है और उधर दान दिया जाता है।
__ मगर जो दाता यह समझता है कि मैंने इकट्ठा किया है, अब मैं इसका क्या करूँ ? मुझे इतने धन की आवश्यकता नहीं है, अपितु इस धन की जनता को आवश्यकता है । ऐसा समझ कर जो जनता के हित के लिए देता है, वह नहीं समझता कि मैंने बड़ा अनुग्रह किया है । बल्कि यह समझता है कि मैंने धन-संचय करने का प्रायश्चित किया है। परिग्रह के पाप का प्रायश्चित है, दान ।
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