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अगर आप इतने ऊँचे नहीं उठे हैं कि जीवन की आवश्यकताओं की पूरी तरह उपेक्षा कर दें और उसके लिए किसी वस्तु पर निर्भर न रहे, तो अपनी आवश्यकताओं की सूची तो तैयार कर ही सकते हैं । ऐसा नहीं होना चाहिए कि उठे और दौड़ लगाते रहे और धन जोड़ते रहे और नयी-नयी आवश्यकताओं की तालिका का पता ही न लगा । यह भी न समझ पाए कि जीवन की आवश्यकताएँ क्या हैं ? ऐसा तो नहीं होता कि कोई बाजार में जाए और उसे यही मालूम न हो कि मेरी आवश्यकताएँ क्या हैं ? कोई सारे बाजार को तो समेट लाने का प्रयत्न नहीं करता । होता यही है कि घर से निकलने के पहले मनुष्य अपनी आवश्यकताओं का विचार कर लेता है, मुझे अमुक चीजें चाहिए- ऐसा निश्चय कर लेता है और फिर बाजार में निकलता है ।
जीवन के बाजार में भी जीवन की तालिका बनाकर चलना चाहिए और जो इस प्रकार चले हैं, वही अपरिग्रही हैं। यही श्रावक का अपरिग्रह व्रत है, इच्छा परिमाण व्रत है ।
भगवान् महावीर के पास कोई साधक आया, सम्राट् आया या गरीब आया, उन्होंने यही कहा- अपने जीवन की आवश्यकताओं को समझो । आज तक नहीं समझ सके हो, अंधे की तरह दौड़ रहे हो । आखिर बाजार में पागलों की तरह नहीं दौड़ना है, बुद्धि लेकर चलना है।
जीवन के बाजार में भी सबसे पहले अपना दृष्टिकोण निर्धारित कर लेना है। क्या करना है और क्या-क्या हमारी आवश्यकताएँ हैं, यह सोच लेना है और सोच लेने के बाद आवश्यकता से अधिक नहीं लेना है । ऐसा करने पर ही जीवन के बाजार में पैठ हो सकती है । ऐसा करने से पहले अपने मन से सलाह लेनी चाहिए और उसे राजी कर लेना चाहिए ।
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