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ब्रेक लगा दो और जीवन की गाड़ी जो अमर्यादित रूप में चल रही है, दूसरों को कुचलती हुई चल रही है, उसे रोक दो या मर्यादित रूप में चलने दो । और जब उसे मर्यादित करो, तो ऐसा मत करो कि पहले तो किसी को घायल करो और फिर उसकी मरहम पट्टी करो । यह जीवन का आदर्श नहीं है ।
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पहले तो किसी को घायल करो और फिर उसकी मरहम पट्टी करो - यह जीवन का
आदर्श नहीं है।
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सुनने में आया कि पुराने जमाने में मिमाई - मानव रक्त से बनने वाली एक औषधी विशेष ( मरहम ) के लिए इस प्रकार की प्रक्रिया अपनाई जाती थी, कुछ लोग किसी व्यक्ति को पकड़ कर उल्टा लटका देते थे और उसके सिर में घाव कर देते थे । उसके सिर से खून की एक-एक बूँद टपका करती थी और नीचे रखी हुई कढ़ाई में गिरा करती थी । इस प्रकार एक-एक बूँद खून निकाला जाता था और खून निकाल लेने के बाद उसे छोड़ दिया जाता था मरने नहीं दिया जाता था । उसके बाद उसे फिर अच्छा खाना खिलाया जाता और जब फिर खून तैयार हो जाता, तब फिर उसी प्रकार लटका कर खून निकाला जाता था ।
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उपर्युक्त उदाहरण का तात्पर्य यह है कि पहले किसी पर घाव करना और फिर मरहमपट्टी करना, साधना का कोई महत्वपूर्ण अंग नहीं है । छीना-झपटी करो, ठगाई करो और फिर वाह-वाही पाने के लिए दान करो और दान देकर अहंकार करो और अहंकार से अपने आपको कलुषित करो। इसकी अपेक्षा अपरिग्रह व्रत को ले लो, त्याग कर दो, छीना-झपटी बन्द कर दो, यही तरीका श्रेष्ठ है । दान से त्याग सदा श्रेष्ठ रहा है ।