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मत बढ़ने दो । लालच के कारण ही तुम अपनी प्रजा को चूस चूस कर अपना खजाना भर रहे हो । जिस दिन तुम अपने इस लालच को त्याग दोगे और जिस दिन तुम्हारे मन में से झूठ, चोरी और छीना-झपटी की भावनाएँ शान्त हो जाएँगी, उसी दिन यह चोरियाँ भी बन्द हो जाएँगी ।
मैं सोचता हूँ कि हमारी बुराइयों की जड़ हमारे अन्दर ही है । जब तक हम उनसे संघर्ष नहीं करते और मन में फैले हुए लोभ-लालच के जहर को दूर नहीं कर देते, तब तक किसी भी प्रकार शान्ति नहीं पा सकते । संसार में धन सीमित है और इच्छाएँ असीम है । भगवान् महावीर ने उत्तराध्ययन सूत्र में कहा था
सुवण्ण-रुप्पस्स उ पव्वया भवे, सिया हु केलास - समा असंख्या 1 नरस्स लुध्दस्स न तेहि किंचि, इच्छा हु आगास- समा अणंतिया 11
कल्पना कीजिए - एक लोभी आदमी
किसी देवता की मनौती करे, और वह देवता उस पर प्रसन्न हो जाय । यथेष्ट वर मांगने का अधिकार उसे दे दे, तो वह कहे- मुझे धन चाहिए । देवता उसके लिए पृथ्वी पर सोने-चाँदी के पहाड़ खड़े कर दे । कैलास और सुमेरु के समान ऊँचे और खूब लम्बे-चौड़े, और फिर एक-दो नहीं, असंख्य पहाड़, कोई उन्हें गिनना चाहे, तो जिन्दगी पूरी हो जाय, पर उन पहाड़ों की गिनती पूरी न हो । इतने पहाड़ खड़े कर देने के बाद भी उससे पूछा जाए कि अब तो तेरा मन भर गया ? अब तो तुझे शान्ति है ? तो, इस
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हमारी बुराइयों की जड़ हमारे अन्दर ही है । जब तक हम उनसे संघर्ष नहीं करते और मन में फैले हुए लोभ-लालच के जहर को दूर
नहीं
कर देते, तब तक किसी भी प्रकार शान्ति नहीं पा
सकते ।