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में कर रहा हूँ। मगर वास्तव में धन-सम्पत्ति परिग्रह के गहरे । और वैभव ही उसकी जिन्दगी को अपने कीचड़ में फंसा हुआ कब्जे में कर लेता है । फिर वह न अपना मनुष्य न खाता है, खुद का रह जाता है, न कुटुम्ब-परिवार का न पीता है और रह जाता है और न दूसरों का ही रह जाता दरिद्र के रूप में है ! न उससे अपना कल्याण होता है और न
रहता है। वह दूसरों का ही कल्याण हो सकता है । वह बही-खाते देखता । सब तरह से और सब तरफ से गया-बीता रहता है, और इस | बन जाता है । न वह दूसरों को चाहता है साल में इतना जमा और न दूसरे ही उसे चाहते हैं । वह चारों हो गया और बैंक | ओर से घृणा का ही पात्र बनता है। में इतनी राशि मेरे
देखते हैं कि परिग्रह के गहरे कीचड़ नाम पर चढ़ चुकी
| में फँसा हुआ मनुष्य न खाता है, न पीता है है, यही देख-देख ।
और दरिद्र के रूप में रहता है । वह बही-खाते कर खुश होता
देखता रहता है, और इस साल में इतना रहता है। उसकी
जमा हो गया और बैंक में इतनी राशि मेरे इच्छा दिन दूनी,
नाम पर चढ़ चुकी है, यही देख-देख कर रात चौगुनी बढ़ती
खुश होता रहता है । उसकी इच्छा दिन दूनी, जाती है।
रात चौगुनी बढ़ती जाती है । न परिवार को a
उससे कुछ मिल रहा है और न राष्ट्र और समाज को ही कुछ मिल रहा है ! देश भूखा मरता है तो मरे, परिवार के लोग अन्न-वस्त्र के लिए मोहताज हैं तो रहें, उनसे क्या वास्ता ? उसकी तो पूँजी बढ़ती चली जाय, बस इसी में उसे आनन्द है !
ऐसे मनुष्य को एक सन्त ने अड़वा (बिजूका) कहा है । फसल
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