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तृष्णा की आग
उपासक आनन्द ने परिग्रह - परिमाण व्रत को अंगीकार किया । परिग्रह - परिमाण व्रत को अंगीकार करने का अर्थ है- जो जीवन अमर्यादित है, जिसमें इच्छाओं का कहीं अन्त नहीं है, जो कुछ भी मिल सके, उसे लेना ही जिस जीवन का उद्देश्य है, उस जीवन को समेट लेना, मर्यादा के भीतर ले लेना और इच्छाओं के प्रसार को रोकने के लिए एक दीवार खड़ी कर लेना ।
आम तौर पर मनुष्य अपने जीवन को अपनी इच्छाओं के वशीभूत करके उसे बेहद लम्बा बना लेता है । वह अपनी इच्छाओं के पीछे-पीछे दौड़ता है- उनकी तृप्ति के लिए, परन्तु इच्छाएँ परछाई की तरह आगे-आगे बढ़ती हैं, दिन दुनी और रात चौगुनी ! एक इच्छा तृप्त हुई नहीं कि दस नवीन इच्छाएँ पैदा हो गयीं ।
बस, इसी मनोवृत्ति के मूल में समस्त संघर्ष निहित हैं । आज समाज में, परिवार में और राष्ट्र में जो हाहाकार चारों ओर सुनाई पड़ता है, वास्तव में, उसकी जननी यह लोभ की वृत्ति ही है । जब तक लोभ की वृत्ति को दूर नहीं किया जायेगा, वासना पर अकुंश नहीं रखा जाएगा, इच्छाओं को कुचलने की शक्ति नहीं उत्पन्न होगी और इस रूप में परिग्रह - परिमाण व्रत का आचरण नहीं किया जाएगा, तब तक आज के संघर्षों के मिटने की कल्पना करना मात्र सपना देखना ही है । संघर्षों
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