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वह प्रेरणा चाहे दे सके, प्रगति नहीं दे सकता । संसार में कोरी कल्पनाओं से काम नहीं चलता । कल्पना के आकाश में तीव्र वेग से उड़ने वाले की अपेक्षा, धरती पर चार कदम चलने वाला कहीं अधिक अच्छा है। वह थोड़ा चला है, पर वास्तव में चला तो है। हाँ आदर्शवाद भी जीवन में आवश्यक है और उसके अभाव में गति का कोई लक्ष्य और उद्देश्य ही नहीं रह जाता, किन्तु यथार्थता को भूला देने पर आदर्शवाद बेकार हो जाता है।
तो आदर्श के आधार पे, जहाँ मनुष्य के पैर टिके हैं, उस जमीन को भी हमें नहीं भूलना है । आँखों की धारा तो बहुत दूर तक बहती है, किन्तु आँखों में और पैरों में अन्तर रहता है । यह नहीं हो सकता, कि जहाँ आँखें हैं, वहीं पैर भी लग जाएँ । जीवन की जो दौड़ है, उसको कदम-कदम करके पूरा करना पड़ता है । आँखें तो बहुत दूर पर अवस्थित पहाड़ की ऊँची चोटी को, पल भर की देर किये बिना ही देख लेती हैं, और मन कह देता है कि हमें वहाँ पहुँचना है; परन्तु पैर तो आँख या मन के साथ दौड़ नहीं लगा सकते । उन्हें तो कदम-कदम करके ही चलना पड़ेगा।
अतएव जैन धर्म आदर्शवाद और यथार्थवाद का समन्वय करता है और कहता है कि जब तक मनुष्य गृहस्थ-अवस्था में है, तब तक उसके साथ अपना परिवार भी है, समाज भी है और राष्ट्र भी है। इन सब को छोड़ कर वह अलग नहीं रह सकता है । जब अलग नहीं रह सकता है, तब इन सब की आवश्यकताओं को भी नहीं भूल सकता है । अगर वह भूल जाएगा, तो अपने आपको ही भूल जाएगा । अतएव गृहस्थ अपनी आवश्यकताओं की उपेक्षा नहीं कर सकता । उनकी पूर्ति होनी चाहिए ।
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