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इसी कारण धर्मशास्त्र ने 'इच्छा-परिमाण' का व्रत बतलाया है, 'आवश्यकता-परिमाण' का व्रत नहीं बतलाया । आवश्यकताएँ तो आवश्यकताएँ ही है; और किसी भी आवश्यकता को भूला नहीं जा सकता- छोड़ देना तो असम्भव-सा है । वास्तव में वह आवश्यकता ही नहीं, जो छोड़ी जा सके । जो भूली जा सके । यह तो इच्छा ही होती है, जो त्यागी जा सकती है।
मनुष्य की इच्छाएँ जब आगे बढ़ती हैं, तब अनेक नयी कल्पनाएँ जाग उठती हैं। उन कल्पनाओं के कारण कुछ इच्छाएँ, आवश्यकताओं का रूप धारण कर मनुष्य के जीवन में ठहर जाती हैं । क्योंकि उन इच्छाओं को आवश्यकता समझ लिया जाता है, तो जीवन गलत रूप धारण कर लेता है। अतएव जैनधर्म कहता है कि ऐसी इच्छाओं को, जो तुम्हारी आवश्यकताओं से मेल नहीं खातीं और आगे से आगे बढ़ती जाती हैं, काट दो, समाप्त कर दो। जो अपनी इच्छाओं को, आवश्यकताओं तक ही सीमित रखता है, उसका गृहस्थ जीवन सन्तोषमय और सुखमय बनता है । वस्तुतः वही साधना का पात्र बनता है। इसके विपरीत जो अपनी आकांक्षाओं |
॥ जो अपनी इच्छाओं और इच्छाओं को नियन्त्रित नहीं करता,
को, आवश्यकताओं उसका जीवन उस गाड़ी के समान है, जिसमें
तक ही सीमित ब्रेक न हो । ऐसी गाड़ी खतरनाक होती है ।
रखता है, उसका वच जीवन की गाड़ी में भी ब्रेक का होना
गृहस्थ जीवन अत्यन्त आवश्यक है- अन्यथा वह ब्रेक-रहित
सन्तोषमय और गाड़ी के समान ही अन्धी दौड़ दौड़ेगा, और
सुखमय बनता है। उसी तरह दूसरों को भी कुचलेगा और स्वयं भी चकानाचूर हो जायेगा ।