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पर साँप बन कर बैठने की जो इच्छा है, लाखों वर्षों से इन्सान उसी के चक्कर में पड़ा हुआ है।
श्रेणिक तथा कोणिक के इतिहास की ओर दृष्टि दौड़ाइए । पिता और पुत्र के बीच कितने मधुर सम्बन्ध होने चाहिए ? पिता अपने पुत्र के लिए क्या कामनाएँ और भावनाएँ रखता है ? संसार भर में दो ही जगहें है जहाँ इन्सान अपने आपको पीछे रखने की और दूसरे को आगे बढ़ाने की कला में हर्ष से झूम जाता है । हमारे यहाँ कहा है -
__पुत्रादिच्छेत्पराजयम् । शिष्यादिच्छेत्पराजयम् ।
एक सांसारिक क्षेत्र है और दूसरा धार्मिक क्षेत्र है । सांसारिक क्षेत्र में पिता और पुत्र खड़े हैं और आध्यात्मिक क्षेत्र में गुरु और शिष्य । गुरु अपने शिष्य को आगे बढ़ता देखना चाहता है । जितना उसने अध्ययन किया है, उससे शिष्य अगर आगे बढ़ जाता है तो गुरु हर्ष से विभोर हो जाता है । शिष्य की बढ़ती हुई प्रतिष्ठा में चार चाँद लगाने के लिए ही वह अपने मन और वचन से लग जाता है । शिष्य की प्रतिष्ठा-वृद्धि में गुरु अपनी प्रतिष्ठा मानता है, अपने लिए गौरव की बात समझता है, अपने जीवन की सफलता समझता है ।
और सांसारिक क्षेत्र में, पिता-पुत्र में, यह भावना और भी अधिक गहरी देखी जाती है। मनुष्य क्यों कमा रहा है ? उससे पूछो तो वह अपने आपको भी अलग समेट लेता है और कहता है- मैं जो कुछ भी कर रहा हूँ, अपने बाल-बच्चों के लिए कर रहा हूँ । मतलब यह है कि उसने अपना अस्तित्व मिटा लिया है और अपने अस्तित्व को अपने बाल-बच्चों में ही बिखेर दिया है। इस प्रकार वह अपनी समस्त शक्तियों का प्रयोग करता है और अपने आपको मिटा लेता है । पिता झोंपड़ी में