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उन्ह अब मर जाना चाहिए ! अब राज्य
मैं करूँगा । स्वार्थ मनुष्य को अन्धा बना देता है ।
स्वार्थ मनुष्य
को अन्धा बना
देता है ।
सि
राजा श्रेणिक के जीवन की अन्तिम घड़ियाँ चल रही हैं । बहुत जीएँगे तो वर्ष, दो वर्ष जी लेंगे । आखिर कहाँ तक जीएँगे ? और तब कोणिक को ही वह सिंहासन मिलने वाला है । इसमें कोई सन्देह नहीं है, कोई खतरा भी नहीं । वही उनका उत्तराधिकारी है । मगर कोणिक समय से पहले ही उसे खाली कराने का स्वप्न देख रहा है और शीघ्र से शीघ्र उस पर आसीन होने के मन्सूबे बना रहा है ।
कोणिक को क्यों इतनी उतावली है ? ऐसा तो नहीं कि वह भूखा मर रहा है, नंगा रह रहा है या नंगे पैरों चल रहा है । साम्राज्य का सारा वैभव उसी का वैभव है और उसका वह मनाचाहा उपभोग कर सकता है। उसे कोई रोक-टोक नहीं है। उसके जीवन की जितनी आवश्यकताएँ हैं, वे सब की सब पूरी हो रही हैं, और वह ऐसी स्थिति में है कि चाहे तो हजारों का पालन-पोषण कर सकता है। ऐसा भी नहीं है कि बूढ़े श्रेणिक ने ही अपनी मुट्ठियों में सब कुछ बन्द कर रखा हो और कोणिक के हाथ में कुछ भी न हो । साम्राज्य उसके हाथ में है और हुकूमत उसके हाथ में है । श्रेणिक तो उस समय नाम मात्र के राजा थे और घड़ी - दो - घड़ी सिंहासन पर बैठ जाते थे ।
किन्तु इच्छाओं ने कोणिक को घेरना शुरु किया और चाहा कि जल्दी से जल्दी हमारे लिए सिंहासन खाली होना चाहिए। पिता न दीक्षा लेते हैं, और न मरते ही हैं । तीर्थंकर भगवान् की वाणी सुनते-सुनते
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