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दो भाई अपने जीवन को बँटवारा करके चलाएँ और आने वाली पीढ़ियों से यह भी न कहें कि वे अपने पुरुषार्थ से अपने जीवन की आवश्यकताओं को पूर्ण करें, जीवन की कला की सहायता से अपने जीवन का निर्माण और उत्थान करें, तथा ठीक इसके विपरीत वे उनके लिए बड़े-बड़े महल छोड़ कर चले जाएँ । तो वे पीढ़ियाँ उन ईटों को ही देखेंगी, और पुराने महलों की गिरती हुई ईटें उनका सिर फोड़ती रहेगी ।
पाण्डवों और कौरवों के धन का बँटवारा हो गया तो दुर्योधन के मन में आया कि पाण्डवों के सोने के महल क्यों खड़े हैं ? वे प्रगति कर रहे हैं ? पाण्डवों को एक छोटा-सा राज्य मिला था, पर उन्होंने अपनी शक्ति से बहुत बड़ा साम्राज्य बना लिया है । और मुझे जो साम्राज्य मिला था, वह ज्यों का त्यों पड़ा है । वह तनिक भी नहीं बढ़ सका ।
वास्तव में जब वस्तु को बढ़ाने की कला, किसी के पास नहीं होती, तो वे छीना-झपटी करने पर ही उतारू हो जाते हैं। सोचते हैं भाई की सम्पत्ति को छीन कर अपने कब्जे में कर लूँ । मगर यह ठीक तरीका नहीं है । मनुष्य की अगर कोई वास्तविक आवश्यकता भी है, तो उसकी पूर्ति का यह ढ़ंग नहीं हो सकता । एक आदमी नंगा है । वह दूसरों के वस्त्र छीन ले तो पहले के बदले दूसरा नंगा हो जायेगा । एक भूखा है और दूसरे के पास रोटी है, और भूखा
उससे रोटी छीन लेता है तो दूसरा भूखा रह जायेगा । जब तक वस्तु
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जब वस्तु को बढ़ाने
की कला, किसी के
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पास नहीं होती, तो वे छीना-झपटी करने पर ही उतारु
हो जाते हैं।