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नहीं होती । इस प्रकार अधिकांश मनुष्य अपने मूल्यवान् जीवन को यूं ही बर्बाद कर देते हैं । और यह सब कुछ आज अपने विराट रूप में सर्वत्र दिखाई दे रहा है !
अतएव हमें समझ लेना चाहिए कि आवश्यकता अलग है और इच्छा या आसक्ति अलग । आज संसार में जो भी संघर्ष हैं, वे आवश्यकता और इच्छा के अन्तर को न समझने के कारण ही उत्पन्न हुए हैं।
यह ठीक है कि जहाँ तक आवश्यकताओं का प्रश्न है, मन समाधान चाहता है । यदि मनुष्य उसका समाधान नहीं करता है, तो वह दुनियाँ के मैदान में टिक नहीं सकता है । तो इस रूप में, जहाँ तक आवश्यकताओं का प्रश्न है, कोई भी धर्म इस दिशा में इन्सान के हाथ-पैर नही पकड़ेगा; और न कोई पकड़ने की कोशिश ही करेगा । अगर करेगा तो, वह सफल नहीं होगा । किन्तु इच्छाओं को ही आवश्यकता समझ लिया गया, तो मनुष्य, मनुष्य नहीं रह जायगा । वह अपने जीवन को भी नष्ट करेगा और दूसरों के जीवन को भी ! फिर वह तो दैत्य के रूप में संहार करना शुरु कर देगा ! अतएव सभी धर्मों ने इच्छा और आवश्यकता के अन्तर को समझने पर बल जैन धर्म ने बुराइयों दिया है । अतः इच्छाओं को समझना | को धोने के लिए आवश्यक है।
ज्ञान का निर्मल
जल दिया है। जैन-धर्म निवृत्ति-प्रधान धर्म है । उसकी साधना बहुत बड़ी है और उसने बुराइयों को धोने के लिए ज्ञान का निर्मल जल दिया है । किन्तु हमें
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