________________ 54 अभिज्ञानशाकुन्तलम् [प्रथमो प्रियंवदा-(सस्मितम्-) अणसूए ! जाणासि किंणिमित्तं सउन्तला वणदोसिणी अदिमेत्तं पेक्खदि त्ति ? / [ (सस्मितम् ) अनसूये ! जानासि किं निमित्तं शकुन्तला वनतोषिणीमतिमात्रं प्रेक्षते इति ?] / अनसूया-ण वस्तु विभावेमि, ता कधेहि मे। [न खलु विभावयामि, तत्कथय मे]। . प्रियंवदा-जह वणदोसिणी अणुरूबेण पादबेण सङ्गदा, तह अहम्पि अत्तणो अणुरूबं वरं लहेअं त्ति / यतो हेतोः, नवानि-कुसुमान्येक्-यौवनं यस्याः सा = नवकुसुमसम्पत्तितारुण्या, नवमालिका = पाटलाऽऽख्या लंता ('सेवती गुलाब' इति प्रसिद्धा)। बहूनि फलानि यस्य तस्य भावस्तया = फलभरनम्रतया, उपभोगस्य = संभोगस्य, क्षमः = योग्यः, सेवनार्हः, बहुफल-(वीर्य)-बत्तया सम्भोगसमर्थश्चेति / सहकारः = आम्रभेदः। 'सहकारोऽतिसौरभः' इत्यमरः। नायक-नायिकापक्षे-कुसुमम् = आर्तवम् / फलं = बीजं (वीर्य), सुरतसन्तत्यादिफलहेतुत्वात् / किंनिमित्तम् 1 = कुतः / अतिमात्रं = बहुकालं, प्रेक्षते = निरीक्षते / विभावयामि = तर्कयामि, वेनि / ग्रीष्म काल इस पादपमिथुन (नवमालिका और आम) के लिए तो रतिकारक ( आनन्ददायक और मैथुन योग्य) ही हो गया है। क्योंकि-इधर तो नवीन फूलों के आजाने से यह नवमालिका ( नेवारी) नवयौवनवती हो रही है, और उधर यह सहकार भी फलों के भार से लदे रहने से उपभोग के योग्य हो रहा है [ कुसुम = पुष्प / और स्त्री का मासिकधर्म, ऋतु / पुष्प आजाने से लता पूरी जवानी पर आजाती है, उसी प्रकार ऋतुकाल आने से स्त्री भी रतियोग्य हो जाती है / पुरुष भी सरस और वीर्यवान् होने से उपभोगक्षम हो जाता है ] / प्रियंवदा-(मुसकराती हुई) अनसूये ! क्या तूं जानती है, कि शकुन्तला क्यों इस नवमालिका को इस प्रकार चाव से बार बार देख रही है ? / अनसूया-नहीं मैं तो नहीं जानती हूँ, तूं ही बता / . प्रियंवदा-जैसे यह वनतोषिणी ( नवमालिका) अपने अनुरूप वृक्ष 1 'वनजोसिणी' [ वनज्योत्स्ना]