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आधुनिक हिन्दी-जैन साहित्य
घनपाल कवि द्वारा अपभ्रंश-प्राकृत में रचे गये। 'भविष्यदत्त चरिउ' का पद्यानुवाद है। वीर रस से परिपूर्ण इस रचना में वणिक पुत्र भविष्यदत्त की कथा है
रण संग्राम पीठ नहीं देऊ, हांको सुभट जगत यश लेऊ। परचक्री आन लगाऊं पाय, तो मुंह दिखाऊं तुझको आय।।
शत्रु को पराजीत कर अपने राजा हस्तिनापुर भूपाल के चरणों में बंदी बनाकर डाला-'जहां बैठा जू नरिंद भोपाल, चरणे ले मेल्हा ततकाल, राय भोपाल आनंद मन मया, बहु सनमान भविस का किया।
श्वेताम्बर साधु जिनचन्द सूरि के शिष्य कल्याण देव ने सं० 1643 में 'देवराज वच्छूराज चौपाई' की रचना की थी, जिसमें गुजराती भाषा का प्रभाव लक्षित होता है।
'अंजनासुन्दरीरास' श्री हिरविजयसूरि की शिष्य-परंपरा के शिष्य गणि महानंद ने सं० 1661 में रचा था। इसमें भी गुजराती भाषा के प्रभाव से अनुमान किया जाता है कि गणिमहानंद जी गुजरात के अधिवासी या उससे सम्बन्धित होंगे। जैसे
खेलई खेल खण्डों मोकली सहियर साथ, अंजनासुन्दरी सुन्दरी मंजरि ग्रही करी हाथ।
प्रशस्ति में कवि ने हिरविजयसूरि और अकबर की मुलाकात का वर्णन किया है और हिरविजयसूरि के प्रतिबोध से बादशाह ने प्रसन्न होकर गुरु को सम्मान देने की बात बताई है।
कवि हेमविजय जी अन्धे लेकिन विद्वान् एवं सहृदयी कवि थे। इनके गुरु के गुरु भी हिरविजयसूरि ही थे। उन्होंने संस्कृत में 'कथा रत्नाकर' ग्रन्थ की
ओर हिन्दी में छोटे-छोटे पदों की रचनाएं की हैं। अपने गुरु विजयसेन सूरि की प्रशंसा में 'विजय प्रशस्ति' नामक संस्कृत रचना है। 'मिश्र बन्धु-विनोद' में भी उनका उल्लेख मिलता है। तीर्थंकर की स्तवना के पद भी काफी मिलते हैं।
कवि रूपचन्द जी या पाण्डे रूपचन्द जी मध्यकाल के प्रमुख भावुक, सहृदयी एवं उच्च कोटि के कवियों में से एक प्रसिद्ध कवि हैं। वे कविवर बनारसीदास जी के समकालीन ही थे। स्वयं बनारसी दास जी ने इन्हें बहुत बड़ा विद्वान एवं जैन धर्म के मर्मज्ञ बताया है। उनके ‘परमार्थी-दोहा-शतक' के अध्ययन से उनका आध्यात्मिक ज्ञान झलकता है। प्रेमी जी ने उनकी रचनाओं को 'जनहितैषी' में प्रस्तुत कर उनको उच्च कोटि के कवि घोषित किया है। कवि आध्यात्मिक ढंग से कहते हैं