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आधुनिक हिन्दी - जैन साहित्य
दो हाथों से अपने ही बालों को नोंच लेते हैं और जंगल में जाकर दीक्षा ग्रहण करते हैं। यदि चाहते तो भरत को हरा कर स्वयं चक्रवर्ती बन सकते थे लेकिन जब एक बार मोह का अंधकार नष्ट हुआ फिर चक्रवर्ती पद की आवश्यकता क्या ? आज इसीलिए तो जैन समाज भरत चक्रवर्ती की अपेक्षा आत्मजयी वीर संयमी बाहुबलि को विशेष सम्मान देता है। बाहुबलि को मार डालने के लिए भरत ने तो अंत में चक्र को भी छोड़ा था लेकिन चक्र को लगातार अपनी चारों ओर प्रदक्षिणा देते हुए देखकर बाहुबलि को दुनिया के व्यवहार एवं सांसारिक सम्बंधों की बनावट पर धिक्कार छुटा
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धिक्कार है दुनिया कि है दम भर का तमाशा, भटकता, भ्रमाता है पुण्यवान का पाशा, कर सकते वफादारी की हम किस तरह आशा, है भाई जहाँ भाई के खून का प्यासा ।
चक्रीश ! चक्र छोड़ते क्या यह था विचारा । मर जायेगा, बे-मौत मेरा भाई दुलारा |
उस राज्य को धिक्कार कि जो मद में डूबा दे, अन्याय और न्याय का सब भेद भूला दे । भाई की मुहब्बत को भी मिट्टी में मिला दे, या यों कहो अलिप्त दो हैया बना दे,
दरकार नहीं, ऐसे घृणित राज्य की मन को, मैं छोड़ता हूँ आज से उस नारकी पन को ।
यह कहके चले बाहुबलि मुक्ति के पथ पर, सब देखते रहे कि हुए हो सभी पत्थर ।।
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स्वयंवर :
लक्ष्मण का जितपद्मा नामक राजकुमारी के अभिमान को चूर-चूर कर स्वयंवर जितने की कथा है । जितपद्मा अभिमानी एवं युद्धप्रिय होने से पुरुष से द्वेष करती थी लेकिन लक्ष्मण जी के रूप सौंदर्य एवं बाहुबल से प्रभावित हो कोमल हो जाती है और अनुराग का अनुभव करती है। उसके पिता वैरीदमन लक्ष्मण पर शक्तियों का प्रहार करता है, जिससे अवश्य मृत्यु हो सकती थी लेकिन लक्ष्मण ने तो वीरता से उस शक्ति को हाथों में दबा लिया और अन्त में राजा बैरीदमन लक्ष्मण की अनुपम वीरता से पराजित होकर अपना सिर झुकाता है और अपनी पुत्री जितपद्मा के स्वयंवर में लक्ष्मण को वरमाला प्राप्त
1. द्रष्टव्य- भगवत जैन -' मधुरस', पृ० 21.