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आधुनिक हिन्दी जैन काव्य : विवेचन
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भावनाओं से ओतप्रोत हैं, साथ में सामाजिक सुधार को प्रोत्साहित करने का लक्ष्य बना रहा है। इनकी कविताओं का साहित्यिक मूल्य चाहे कम हो, लेकिन धार्मिक तथा सामाजिक मूल्य अधिक हैं। श्री विद्याविनोद :
1966 में विद्याविजय जी महाराज ने धार्मिक स्तुतिपरक गीतों की रचना की, जिनमें तीर्थंकरों की भक्ति से प्राप्त दुर्लभ शान्ति की प्रप्ति पर जोर दिया गया है। भगवान के गुणों और महानता को स्वीकार कर निज लघुता का प्रदर्शन करके भवसागर से उगारने के लिए विनती की गई है। जो संगीतात्मकता के कारण गेय भी है। इस स्तवन संग्रह के पदों पर राजस्थानी भाषा का प्रभाव जहाँ-तहाँ देखने को मिलता है। फिर भी सुन्दर भावपूर्ण प्रभु-भक्ति के कारण स्तवन आकर्षक है। एक उदाहरण द्रष्टव्य है
जिनवरजी के भवतारक नामतमाए, सेना-नंदन अपने तारो रामजी तारी कुलचंदा से नाम संभवनाथ कह न्यारे, सुशोभित मुख अरविंदा रे अरविंदा रे। सुरवर पुनीत सराएँ रे कल्पवेली मिल गई पुन्य उदय मेरा आज तो निहित ज्यों नाव में करके साथ भवसंभवि हरो खाजतो।
इसी प्रकार की 'वीरपुष्पांजलि' पंडिता के स्तवनों का संग्रह है। वंदना प्रार्थना के इनके गीतों में काफी मधुरता और लेखिका के हृदय की पुकार व तन्मयता का भाव अंकित हुआ है। श्रीमति कमला देवी कृत 'श्री शासन देव से श्राविकासंघ की प्रार्थना' भी छोटे-छोटे धार्मिक स्तवन का संग्रह है। जिस पर राज-स्थानी भाषा का प्रभाव विशेष रहा है। राजस्थान में जैन धर्म का अत्यन्त प्रचार-प्रसार होने के कारण दैनिक स्तुति वंदना, पूजा महोत्सव के समय गाये जाने के लिए ढूंढारी भाषा से प्रभावित हिन्दी में स्तवनों की छोटी बड़ी बहुत सी पुस्तकें लिखी जाती हैं। जिनमें सामान्यतः आकर्षक भाषा शैली में प्रभु की प्रशंसा, गुण-महात्मय, और आत्मा की दीनता-हीनता, नीच गति का वर्णन होता है। तथा प्रभु से संसार-साग पार उतारने की प्रार्थना होती है। यह समझते हुए भी तीर्थन्कर वीतरागी, निष्काम हैं। अपने कर्मों के बल पर ही सुख-दुःख प्राप्त होने वाले हैं, फिर भी प्रभु मूर्ति के सामने ऐसी स्तुति गाकर भक्त आनंद-विभोर होकर शान्ति प्राप्त करने की चेष्टा करता है। मध्य युग में हिन्दी जैन साहित्य में ऐसे धार्मिक काव्य ग्रंथ काफी लिखे गए हैं। और उत्कृष्ट कोटि