Book Title: Aadhunik Hindi Jain Sahitya
Author(s): Saroj K Vora
Publisher: Bharatiya Kala Prakashan

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Page 537
________________ आधुनिक हिन्दी-जैन-गद्य-साहित्य का शिल्प-विधान 513 है, बल्कि मध्यकाल में भी प्रचलित थी। इस सम्बंध में प्रकाश डालते हुए डा. विजयेन्द्र स्नातक लिखते हैं-(मध्यकाल में) जैन कवियों ने प्रबंध और मुक्तक दोनों शैलियों को अपनाया। दोहा-चौपाई पद्धति में चरित काव्यों की रचना इनकी उल्लेखनीय विशेषता है, जिनमें विशेषतः तीर्थंकरों की जीवनियों द्वारा से जैन धर्म के सिद्धान्तों को लोकप्रिय ढंग से प्रस्तुत किया गया है। जैन कवियों में स्वयंभू, पुष्पदन्त और हेमचन्द्र उल्लेखनीय हैं। उनके द्वारा लिखित अपभ्रंश के चरित-काव्यों, शैलियों और छन्दों का परवर्ती हिन्दी काव्य पर पर्याप्त प्रभाव पड़ा। इन जीवनियों या चरित-ग्रन्थों में धार्मिक विचारधारा की चर्चा भी यत्र-तत्र रहने से धर्म के विशिष्ट तत्त्वों का आ जाना बहुत स्वाभाविक है। लेकिन इससे किसी प्रकार के पाठकों को रसा-स्वादन में असुविधा नहीं पैदा होती। आचार्यों, विद्वानों की जीवनी एवं तीर्थंकरों के चरित्रों के अनन्तर आधुनिक हिन्दी जैन साहित्य की दो महत्वपूर्ण आत्मकथा की शैली व गठन के सम्बंध में संक्षेप में प्रकाश डालना अनुचित नहीं होगा। जीवनी व आत्मकथा में शैलीगत मूल अन्तर यह है कि जीवनी अन्य के द्वारा वर्णित होती है, अतः शैली में श्रद्धा भाव या प्रशंसा या नायक की महत्ता पर उचित प्रकाश डाला जा सकता है, जबकि आत्मकथा स्वयं नायक के द्वारा लिखी जाने से आत्मश्लाघा या निंदा-स्तुति का डर बना रहता है। निर्भीकता, सत्यान्वेषण तथा मंगलमय दृष्टिकोण, शैली की चुस्तता, आत्मकथा के लिए नितान्त आवश्यक है। पं. गणेशप्रसाद वर्णी जी की आत्मकथा 'मेरी जीवन गाथा' एवं 'अजीत प्रसाद जैन' की 'अज्ञात जीवन' दो प्रमुख आत्मकथा है, जिनकी स्वानुभवपरक, सुख-दु:ख पूर्ण घटनाओं को पढ़कर पाठक जीवन की गहराई को जान पाता है। इन दो आत्मकथाओं से न केवल जैन साहित्य बल्कि हिन्दी साहित्य का भी महद उपकार हुआ है। वर्णी जी की आत्मकथा से आबाल वृद्ध सभी को कुछ-न-कुछ जाननेसीखने को मिलता है। इनकी शैली निराडम्बर एवं हल्की-फुल्की स्वाभाविक बोलचाल की होने से रसास्वादन व सन्देश दोनों प्राप्त हो सकता है। अपने आप पर हंसने की, व्यंग्य करने की वृत्ति-शैली से आत्म कथा में जीवन्तता व मनोरंजनात्मकता आ गई है, फिर भी शैली में विचार-गांभीर्य की कमी कहीं महसूस नहीं होती। छोटे-छोटे वाक्यों में भी इतने सुन्दर गूढ भाव भर देते हैं कि पाठक को विचार करने पर बाध्य होना पड़ता है-जैसे-'पाप चाहे बड़ा करे 1. डा. विजयेन्द्र स्नातक-हिन्दी कविता का विकास, पृ. 2.

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