Book Title: Aadhunik Hindi Jain Sahitya
Author(s): Saroj K Vora
Publisher: Bharatiya Kala Prakashan

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Page 543
________________ उपसंहार 519 जानकर उसके प्रति आकर्षण पैदा हो सकता है। साहित्य में भी विशिष्ट दार्शनिक सिद्धान्तों की चर्चा सरल-रोचक भाषा-शैली में प्रस्तुत होनी चाहिए। जहाँ तक संभव हो, विशिष्ट शब्दावलियों के मोह को त्याग कर उसका सरल शब्दों में अर्धघटन करना चाहिए। इस महत्वपूर्ण कार्य के लिए अनेक महान आचार्यों ने धर्म की रक्षा के साथ साहित्य-सृजन एवं सुरक्षा का भार संभाला था। प्राचीन व मध्यकालीन साहित्य में आचार्यों का योगदान भी कम नहीं है। उसी प्रकार आज भी संशोधन कार्य में भी पुन्यविजय जी, जिनविजय जी, धर्मविजय जी, विद्याविजय जी आदि आचार्यों का उत्साह दर्शनीय रहा है। लेकिन दुःख के साथ कहना पड़ता है कि विभिन्न संप्रदायों और 'वाड़ों' में यह धर्म आज विभक्त होता ही जा रहा है। आपसी मतभेदों के कारण सभी अपने-अपने राग अलापते हैं। आचार्यों की भांति जैन साहित्य के विद्वानों से भी यह अपेक्षा स्वाभाविक रहेगी कि जैन धर्म के तत्त्वों का रसमय निरूपण वे साहित्य के माध्यम से करें। अपने गहन ज्ञान व विद्वता का लाभ सामान्य जन-समाज तक भी पहुँचायें। निबंध व कथा साहित्य के द्वारा यह कार्य सहज रूप से हो सकता है-इस क्षेत्र में बहुत से प्रतिभा संपन्न विद्वानों ने कार्य किया भी है जैसे-पं० नाथूराम प्रेमी, पं० सुखलाल जी, पं० दलसुख मालवणिया, डा. हीरालाल मेहता, श्रीयुत अगरचन्द नाहटा, पं. नेमिचन्द्र शास्त्री, डा. आचार्य ने. उपाध्ये, पुन्यविजय जी तथा जिनविजय जी प्रभृति विद्वानों के अतिरिक्त और भी बहुत-से कुशल साहित्यकार हैं। पं० सुखलाल जी ने एक स्थल पर जैनों की परंपरा-प्रियता पर लिखा है कि-'जैन परंपरा ने विरासत में प्राप्त तत्त्व और आचार को बनाये रखने में जितनी रुचि ली है, उतनी नूतन सर्जन में नहीं ली।' पंडित जी का यह विचार साहित्य के संदर्भ में भी सही प्रतीत होता है कि आधुनिक युग में भी प्राचीन या मध्यकालीन साहित्य को पुनः मुद्रित करने की प्रवृत्ति विशेष पाई जाती है, जबकि नूतन साहित्य-सृजन में कम रही है। संस्कृत, अपभ्रंश एवं प्राचीन हिन्दी का साहित्य निःशंक रूप से समृद्ध है और उसका अनुवाद भी वांछित है। प्रसिद्ध प्राचीन प्रबन्ध काव्यों जैसे-पऊमचरित, रिठ्ठनेमि चरित, तिसद्वि महापुरिस-गुणालंकार, नागकुमार चरित, यशोधर चरित, महापुराण, पार्श्व पुराण, सुदर्शन चरित, मल्लिनाथ महाकाव्य और हरिवंश पुराण का परिचय सुलभ कराने के लिए पुनः संशोधन-प्रकाशन का कार्य भी होना चाहिए। साथ ही नूतन वातावरण को लक्ष्य में रखकर नये उत्कृष्ट साहित्य के सृजन से रस-प्राप्ति के साथ लोकोत्तर आनंद की भी उपलब्धि होती है।

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