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आधुनिक हिन्दी-जैन साहित्य
कृष्ण अय्यर के 'जैन-जर्नल' में प्रकाशित लेख का कुछ अंश यहाँ उद्धरित करना समीचीन हैं-Many People complain that Jainism is un-suited to today's world, because it is the path of Assceticism and lays undue stress on 'Tyag'or sacrifice. It is true that Jainism emphasises the virtues of sacrifice or self-denial but it must be clearly understood that any unworthy sacrifice can-not lead to happiness'. आगे डा० अय्यर इसके विरोध में जैन धर्म के सत्य, प्रेम, अहिंसा, अपरिग्रह एवं समानता की महत्ता पर प्रकाश डालते हैं तथा आज भी उसकी संपूर्ण उपादेयता सर्व स्वीकृत होने पर जोर देते हैं।
___ यह तो जैन धर्म के महत्व की बात हुई। उसकी संकीर्णता से, मर्यादा से, तीव्रतम कष्ट-सहिष्णुता, सामान्य जीवन व्यवहार में विशिष्ट आचार-विचार, के सम्बंध में भिन्न-भिन्न विचारधारा फैलती रहती है। इसका प्रभाव साहित्य पर भी पड़ना स्वाभाविक है। युगानुरूप परिवर्तित विचार सरणी के सन्दर्भ में उसकी चुस्तता भी बहुतों को स्वीकार्य नहीं है। प्राचीन काल से तीर्थंकरों एवं महान आचार्यों द्वारा उपदेशित सिद्धान्तों को ही मूल रूप से स्वीकृत रखने की जैन-समाज की वृत्ति में भी संकीर्णता के दर्शन होते हैं। इसके पक्ष में यह भी कहा जा सकता है कि धर्म-दर्शन कोई 'फैशन' तो नहीं होता, जो समय की मांग के साथ बदलता रहे अथवा युग के वातावरण के साथ उसके तत्त्वों में भी परिवर्तन-परिवर्द्धन होता रहे। जैन धर्म का दृढ़ता से पालन और उसके विभिन्न तत्त्वों को जीवन में संनिष्ट करने के आग्रह से अनुयायियों की संख्या यद्यपि न्यून होती जा रही है। आज के उन्मुक्त वातावरण में धर्म को शिथिलताओं के साथ स्वीकार कर आचरण करना जैसे मनुष्य का स्वभाव-सा बन गया है। आज जीवन मूल्य बिखरते जा रहे हैं, उनमें परिवर्तन हो रहा है। जैन धर्मानुयायियों की धर्मपरक चुस्तता बुरी नहीं है, लेकिन आज के युग में वह कहाँ तक ग्राह्य या व्यवहृत हो सकती है ? जब सभी क्षेत्रों में जीवन-मूल्यों में आमूल परिवर्तन होते आ रहे हैं, भौतिकता को अग्रिम स्थान मिलता जा रहा है, तब प्राचीनतम सिद्धान्तों में विश्वास बनाये रखना युवा पीढ़ी के लिए अवश्य कठिन कहा जायेगा। यह परीक्षा काल है। जैन-धर्म व साहित्य में रुचि व जिज्ञासा पैदा करने के लिए सर्वप्रथम जैन धर्म के तत्त्वों की विशिष्टता एवं गहनता को सरल रूप से समाज के समक्ष प्रस्तुत करना होगा। दार्शनिक विचारधारा एवं सिद्धान्तों का जब सामान्य जनता में योग्य रूप से प्रसार होगा तभी उसकी महत्ता-उपादेयता 1. द्रष्टव्य-Dr. Krishna Ayyar-'Relevene of Jainism to Modern
Times'. In Jain Journal' Oct. 78, pp. 77, 78.