Book Title: Aadhunik Hindi Jain Sahitya
Author(s): Saroj K Vora
Publisher: Bharatiya Kala Prakashan

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Page 546
________________ 522 आधुनिक हिन्दी-जैन साहित्य प्राप्त होती हैं। यदि इस दिशा में भी धार्मिक या उच्च सामाजिक व्यक्तियों के साथ प्रसिद्ध साहित्यकारों, समाज-सुधारकों तथा विद्वानों के विषय में भी साहित्य प्रकाशित होता रहे तो जैन-समाज की इस विषय में जागृति होगी। कथा-साहित्य के लिए तो विषय वस्तु की कमी जैन साहित्य में रही ही नहीं है। प्रारंभिक काल से जैन साहित्य में कथा-साहित्य को काफी महत्व प्राप्त हुआ है, क्योंकि प्राचीन जैन-आगम ग्रंथों में तथा 'नायधम्म कथा', पुण्याश्रव कथास्रोत' आदि अनेक ग्रंथों में कथा-कहानियाँ एवं लघु 'रूपकों' का प्रचुर मात्रा में संग्रह है। अतः उनको आधार बनाकर आधुनिक शैली व रुचि के अनुकूल प्रस्तुत करने से जैन-साहित्य के प्रति सामान्य जनता में जिज्ञासा व रुचि पैदा होती है। इस क्षेत्र में काफी साहित्य प्रकाशित हो चुका है। प्राचीन जैन-कथा साहित्य की समृद्धि के लिए स्व० डा. वासुदेव शरण अग्रवाल ने यथार्थ ही लिखा है कि-विक्रम संवत् के प्रारंभ से 19वीं शती तक जैन साहित्य में कथा ग्रंथों की अविछिन्न धारा पाई जाती है। यह कथा-साहित्य इतना विशाल है कि उसके समुचित संपादन और प्रकाशन के लिए 50 वर्ष से कम समय की अपेक्षा नहीं होगी। डा. सत्यकेतु का भी जैन कथा-साहित्य में विपुल भंडार के विषय में ऐसा ही मत है। पाश्चात्य विद्वानों में डा. जेकोबी, श्री टोन, ल्यूमेन, बुलवर्क, टेस्सीटोरी, श्रीमती हर्टल आदि ने जैन-कथा-साहित्य के क्षेत्र में काफी खोजबीन की है। ग्रंथों की सुरक्षा दृष्टि से देखा जाय तो जैन धर्मियों ने प्राचीन भाषा और साहित्य के ग्रंथों की समुचित रक्षा कर समाज व साहित्य की श्लाघनीय सेवा की है। भाषा के अतिरिक्त विषय की दृष्टि से भी जैन साहित्य महत्वपूर्ण रहा है। इसके साथ जैन मुनियों का लिपि-कौशल भी प्रशंसनीय रहा है। स्वयं कलात्मक हस्ताक्षरों में ललित कृतियों का सृजन करते एवं अन्य अच्छे लिपिकों से लिपि करवाते। आधुनिक जैन-पद्य-साहित्य की उपलब्धि के संदर्भ में केवल यह तथ्य है कि महाकाव्य व खण्ड काव्य सीमित मात्रा में रचे गए हैं, जबकि मुक्तक साहित्य का परिमाण संतोषप्रद है। विषय-नावीन्य तो नहीं मिलेगा, शिल्प-विधान में पहले की अपेक्षा कुछ परिवर्तन दृष्टिगत होता है। भगवान महावीर के 2500वें निर्वाण वर्ष के उपलक्ष्य में इस दिशा में सुंदर काम हुआ। दो-तीन महत्वपूर्ण महाकाव्य, खण्डकाव्य एवं स्फुट रचनाओं के साथ गद्य-साहित्य का भी अच्छा प्रणयन हुआ, जिससे आधुनिक जैन साहित्य का प्रवाह अविछिन्न रहता है। काव्य में नूतन शैली एवं भावाभिव्यक्ति का परिवर्तित रूप लक्षित होता 1. द्रष्टव्य-डा० वासुदेवशरण अग्रवाल-जैन जगत, पत्रिका, अप्रैल-1977, पृ० 8.

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