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आधुनिक हिन्दी-जैन साहित्य
लेकिन दो ही उपलब्ध होते हैं-'जम्बूदीप प्रज्ञा सटीका' तथा 'अन्तरिक्ष पार्श्वनाथ स्तवः-फिर भी उनकी असाधारण विद्वता में लेशमात्र संदेह नहीं रहता।
इस जीवनी में तिथिवार एवं संवत् का निश्चित् उल्लेख होने से उसकी ऐतिहासिकता में शंका नहीं होती लेकिन आचार्य महाराज के जीवन को विस्तृत एवं गहराई में न प्रस्तुत कर केवल उनकी सामाजिक क्षेत्र की विशेषता एवं उच्च मानवीय गुणों का उल्लेख किया है। लेखक ने सरल-शुद्ध भाषा में आचार्य श्री की जीवनी लिखकर जैन-जगत् के प्रेरणा स्वरूप जीवन पर प्रकाश डाला है। (2) सच्चे साधु :
जगतपूज्य विजयधर्म सूरि महाराज की जीवनी अभयचंद भगवानदास गांधी द्वारा प्रकाशित की गई है, जिसमें चरित-नायक के जीवन की महत्वपूर्ण घटनाओं, विद्वता, महत्ता आदि का सुंदर साहित्यिक शैली में वर्णन किया है।
जीवनी के नायक का जन्म सं० 1924 में हुआ था। नायक के जन्म समय का आकर्षक वर्णन करते हुए लेखक लिखते हैं-"दिशाएँ हंसने लगीं। हवा प्रसन्न होकर वृक्षों के साथ खेलने लगी। वृक्ष की डाली मानो नाच-नाच कर इस महापुरुष के आगमन की खुशी मनाने लगी।" सौराष्ट्र के महुवा शहर में जन्मे हुए विजयधर्म का बचपन का नाम मूलचन्द था।बालक मूलचन्द के बचपन का सुन्दर वर्णन लेखक ने किया है। उनका स्वभाव, आरंभ, संस्कार, बचपन की बुरी आदतों का बेझिझक वर्णन किया है, जो अच्छी व प्रमाणिक जीवनी का अंग होता है। संसार के कडुवे-मीठे अनुभवों के बाद अपरिणित स्थिति में ही भावनगर में विराजमान बुद्धिचन्द महाराज से दीक्षा ग्रहण की थी। उन्होंने गहन अध्ययन कर अज्ञान अंधकार को दूर किया था तथा क्रमशः न्याय तथा व्याकरण शास्त्रों के ग्रन्थों का अध्ययन पूर्ण किया। जहाँ-जहाँ विहार करते, वहाँ-वहाँ जैन पुस्तकालय व पाठशाला बंधवाने के लिए प्रेरणा तथा अनुमोदना देते रहते थे। 'यशोविजय ग्रन्थालय' का निर्माण भी उनकी प्रेरणा व सहयोग से हुआ। सबसे पहले माण्डल में 'यशोविजय ग्रन्थ जैन पाठशाला' स्थापित की। अनन्तर बारह विद्यार्थी एवं छः साधुओं को लेकर जैन विरोधियों के साम्राज्य स्वरूप काशी नगरी में गये। वहाँ भी अनेक कष्टों के बावजूद 'हेमचन्द्राचार्य पुस्तकालय' नामक संस्था-स्थापित की। सं० 1964 में बनारस में बहुत बड़ी सभा में काशी नरेश सर प्रभुनारायण सिंह जी के हाथ से संस्कृत में लिखित प्रतिष्ठा-पत्र प्राप्त किया। इस घटना के बाद 'धर्म सूरि' से 'विजय