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आधुनिक हिन्दी-जैन-काव्य का कला-सौष्ठव
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गुण प्रायः सर्वत्र पाया जाता है। वीर रस के वर्णनों में भावानुकूल भाषा का प्रयोग हुआ है। कवि ने यत्र-तत्र ध्वन्यात्मक शब्दाबली का प्रयोग किया है। उदाहरण द्रष्टव्य है
ढमकत ढोल त्र्यंबालु भेरि गहवर गाजहि। तड़-तड़ निनाद के तुरीन के, ठवें ठवें नगारे वावहीं॥ धुनि शंख की सुनि जात ना, डर खात कायर भागहीं।
हाँ, हाँ, मरे, हाँ, हाँ मरे, बचहि कोऊ न पावे॥' इसी प्रकार
वज्र फुरन्दर कर कर में राजे, घर घरार घररर रव गावे।
महाकाव्य की भाषा-शैली की एक यह भी विशेषता है कि नाद-सौंदर्य के कारण भाषा में मिठास व स्वाभाविक का पुट मिल गया है-यथा
गजदन्त से गजदन्त लागत, अनल कण दरसान यों। घर्षत बादल प्रगट झरकत, झल झलक विद्युत ज्यों॥ मातंग गण्डस्थल फूटत, उछलत रुधिर प्रवाह क्यों? महि फार डार बहार निकसन, अद्रि से जलधार ज्यों।
इस हिन्दी जैन महाकाव्य पर 'मानस' कार की भाषा-शैली का प्रभाव है। किंतु कवि स्वरूप से न तो अवधी भाषा का समुचित प्रयोग कर सका है और न छन्द का ही।
काव्य की भाषा सर्वत्र दोषरहित या मधुर ही है, ऐसा भी नहीं है। शब्द-प्रयोगों में कवि ने बहुत सी तोड़-मरोड़ भी की है। जैसे-अवश्य के लिए अवसि, मरण का मर्णा, सयाना का श्याना आदि। गुजराती भाषा एवं ठेठ गाँव की बोली के शब्दों का भी अनेक बार प्रयोग किया है-यथा-'बाहर' के लिए 'बहार', वापरों, दिवाल, केम(क्यों?) लूछना, अहि तर्हि, गभरात, पीगले' आदि ऐसे बहुत-से शब्दों को देखा जा सकता है। न केवल शब्द-प्रयोग, बल्कि मुहावरे भी कहीं-कहीं गुजराती भाषा के मुहावरों से पूर्णतः प्रभावित है-जैसे-'अंगुली से नख अलग समाना' पर गुजराती के 'आंगलीथी नख वेगलो' का प्रभाव स्पष्ट है।
महाकाव्यों की भाषा शैली पर विचार लेने के पश्चात् अब उपलब्ध खंड काव्यों की भाषा-शैली पर विचार कर लेना चाहेंगे। जैन खण्ड काव्यों एवं मुक्तकों में सरल, सुबोध भाषा ही अधिकतर मिलती है।
श्री धन्यकुमार जैन 'सुधेश' के 'विराग' खण्डकाव्य में भावानुरूप भाषा 1. द्रष्टव्य : 'वीरायण', सर्ग-2, पृ० 100, 195. 2. वीरायण-सर्ग-2-197.