________________
आधुनिक हिन्दी-जैन-काव्य का कला-सौष्ठव
415
(3) प्रगतिवादी विचारधारा से प्रभावित काव्यों की भाषा-शैली विचारप्रेरक व गतिशील रही है। भगवत जैन के 'नर-कंकाल' काव्य की ऐसी भाषा-शैली देखिए
घने अभावों और व्यथाओं में पलकर जो बड़ा हुआ, प्रकृति जननी की कृपा-कोर से अपने पैरों खड़ा हुआ। सित भविष्य के मधु सपनों में, भूला जो दुःख की गुरुता। रुचिर कल्पनाओं की मन में जोड़ा करता जो कविता। इन्द्रधनुष जिसकी अभिलाषा, वर्तमान जिसका रोख, युग-सी घड़ियां बिता-बिता, जो खोज रहा अपना वैभव। तिरस्कार-भोजन, प्रहार-उपहार, भूमि जिसकी शय्या। धनाधिकों के दया-सलिल में खेता जो जीवन-नैया।'
भवानी दत्त शर्मा की 'मेरी जीवन साध' कविता में शब्द के पुनरावर्तन से भाषा में प्रवाह मिलता है-जैसे
नर हित में रत रहूँ निरन्तर, मनुज-मनुज में करु न अन्तर, नस-नस में बह चले देश की प्रेम धार निर्बाध मेरी जीवन-साध।
ईश्वरचन्द्र की 'अर्चना' में उत्कट प्रभु-भक्ति के भावों के साथ कलात्मक भाषा की छटा भी निखर आई हैऔर वीतराग पुनीत
देव! तुमसे ही अलंकृत मुक्ति का संगीत। क्षमा-निशि के गहन-तम को,
भेद ज्योतिर्मान। लोल लहरों पर लिखे निर्वाण के मृदु गीत।
ओ वीतराग पुनीत।' इसी प्रकार 'छलना' काव्य में कवि गणपति गोयलीय ने हृदयोर्मिका सरल भाषा में सुन्दर अंकन किया है
जब यौवन की प्रथम उषा में, मैंने आँखें खोलीं, भव-सागर के पार पूर्ति है, हंस आशाएं बोली।
सोचा क्यों न चलूं उस पार,
बैठा तरि पर ले पतवार, में था अनुभव हीन युवा, कैसे पतवार चलाता,
ऐसा नाविक मिला न जो, उस पार मुझे पहुँचाता। 1. आधुनिक जैन कवि, पृ. 227.