________________
आधुनिक हिन्दी-जैन-काव्य का कला-सौष्ठव
419
पर्याप्त महत्व स्वीकार किया है। 'काव्य-प्रकाश'कार मम्मट का 'अनलंकृति पुनः क्वापि' विधान इसी बात का द्योतक है। हिन्दी साहित्य में भी अलंकारों की परम्परा अक्षुण्ण रही है। संस्कृत काव्य ग्रंथों व शास्त्रों से प्रभावित अलंकारों का प्रवाह व प्रभाव हिन्दी रीतिकालीन साहित्य में देखा जा सकता है। आधुनिक काल के काव्य-साहित्य पर भी अलंकारों का प्रभाव दृष्टिगत होता है। इसीलिए तो छायावाद के प्रसिद्ध कवि सुमित्रानंदन पंत अलंकारों के अपरिहार्य महत्व पर प्रकाश डालते हुए लिखते हैं-अलंकार केवल वाणी की सजावट के लिए नहीं, वरन् भाव अभिव्यक्ति के भी विशेष द्वार हैं। भाषा की पुष्टि के लिए, राग की पूर्णता के लिए आवश्यक उपादान हैं। वे वाणी के आचार, व्यवहार, रीति-नीति हैं, पृथक स्थितियों में पृथक स्वरूप, भिन्न-भिन्न अवस्थाओं के भिन्न-भिन्न चित्र हैं।'
अलंकारों के अपूर्व प्रयोग के कारण रीतिकाल को तो 'कला-काल' की संज्ञा भी प्राप्त है। रीतिकालीन कवि-आचार्य केशवदास की अलंकारों को अति महत्व देती निम्न उक्ति तो अत्यन्त प्रसिद्ध है
जदपि सुजाति सुलच्छनि सुबरन सरस सुवृत्त। भूषन बिनु न बिराजई, कविता वनिता मित्त॥
संपूर्ण रीतिकाल में अलंकारों का महत्व स्वीकृत हुआ है। अलंकारों की जैन काव्य में स्थिति के संदर्भ में डा. प्रेमसागर ने जो विचार मध्यकालीन हिन्दी जैन काव्यों के सम्बंध में किये हैं, वे आधुनिक हिन्दी जैन काव्यों के लिए भी उतने ही सही हैं-'जैन हिन्दी कवियों की रचनाओं में अलंकार स्वभावतः आये हैं। अर्थात् अलंकारों को बलात् लाने का प्रयास नहीं किया गया है। जैन कवियों ने भाव को ही प्रधानता दी है। भावगत सौंदर्य को अक्षुण्ण रखते हुए यदि अलंकार आते भी हैं, तो उनसे कविता बोझिल नहीं हो जाती। जैन कवियों की कविताओं से प्रमाणित है कि उनमें अलंकारों का प्रयोग तो हुआ है, किन्तु उनको प्रमुखता कभी नहीं दी गई। वे सदैव मूलभाव की अभिव्यक्ति में सहायक-भर प्रमाणित हुए हैं। जैन कवियों का अनुप्रास पर अधिकार था।
हिन्दी जैन काव्यों में अलंकार-प्रयोग के चातुर्य पर प्रकाश डालते हुए नेमिचन्द्र जी लिखते हैं-"हिन्दी-जैन-कवियों की कविता-कामिनी अनाड़ी राजकुलांगना के समान न तो अधिक अलंकारों के बोझ से दबी है और न ग्राम्य 1. पंत-पल्लव प्रवेश, पृ० 22. 2. डा. प्रेमसागर जैन-हिन्दी जैन भक्तिकाव्य और कवि, पृ. 445-446.