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आधुनिक हिन्दी-जैन साहित्य
भाषा के शब्द विधान में भी उत्कृष्टता और विशदता का पूरा ध्यान रखते हैं। साथ ही व्यर्थ के शब्दाडम्बर को स्थान देना आपको पसन्द नहीं है। साधारण: आपकी शैली संगठित एवं व्यवस्थित है, किन्तु धारावाहिक प्रवाह की कमी कहीं-कहीं खटकती है। वाक्य आपके साधारण से विचार से कुछ बड़े पर गठन में सीधे-साधे एवं सरल होते हैं। मुख्तार की भाषा-शैली में जहाँ एक ओर विद्वता भी है तो दूसरी ओर विषयानुकूल सरलता एवं व्यंग्य भी भरा पड़ा है-एक उदाहरण देखिए
'क्या जैनियों की तरफ से श्री अकलंक देव के अनुयायीपन का सूचक कोई प्रयत्न जारी है ? गुरु की अनुकूलता-प्रदर्शक कोई काम हो रहा है ? और किसी भी मनुष्य को जैन धर्म का श्रद्धानी बनाने या सर्व-साधारण में जैन धर्म का प्रचार करने की कोई खास चेष्टा की जाती है ? यदि यह सब कुछ भी नहीं तो फिर ऐसे अनुयायी मन से क्या ? खाली गाल बजाने, शेखी मारने और अपने को उच्च धर्मानुयायी प्रगट करने से कुछ भी नतीजा नहीं है।
मुनि कल्याण विजय जी का ऐतिहासिक निबंध के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान है। जैन राजाओं एवं जैन प्राचीन तीर्थों के शिलालेखों के सम्बंध में अनेक गवेषणात्मक लेख लिखकर नई दिशा सुझायी है। ऐतिहासिक प्रमाणों एवं अन्य धर्मों की तुलना से अपने विचारों को पुष्टि देकर प्रकाशित किये हैं। उनके निबंधों की शैली प्रायः गठनपूर्ण एवं विवेचनात्मक रही है। सरल भाषा-शैली में भी गहन विषयों को प्रस्तुत कर अपने मतों को पुष्ट करने की पूर्ण क्षमता है। संस्कृत-तत्सम शब्दों का प्रयोग बड़ी सावधानी से उन्होंने किया है। यद्यपि कहीं-कहीं वाक्य गठन का अभाव प्रतीत होता है, फिर भी भाषा-शैथिल्य नहीं है। इसी प्रकार लम्बे-लम्बे वाक्य होने के कारण कहीं-कहीं दूरान्वय दोष भी रह गया है। साधारण रूप से उनकी शैली धारावाहिक कही जायेगी।
बाबू कामताप्रसाद जैन इतिहासकार के अतिरिक्त निबंधकार के रूप में भी प्रसिद्ध हैं। उन्होंने भी जैन राजाओं के वंश, गोत्र, तीर्थंकर के स्थान वंश, जैन तीर्थों आदि के सम्बंध में ऐतिहासिक कोटि के निबंध लिखे हैं। यद्यपि उनके निबंधों में कहीं-कहीं ऐतिहासिक काल दोष रह गया है। तथापि उनके निबंधों का योगदान महत्वपूर्ण है। उनकी शैली व्यवस्थित है तथा ऐतिहासिक
1. आ. नेमिचन्द्र शास्त्री-हिन्दी जैन साहित्य-परिशीलन-भाग-2, पृ. 124. 2. द्रष्टव्य-जुगलकिशोर मुख्तार-'युगवीर निबंधावली-प्रथम खण्ड में-जैनियों में
दया का अभाव' नामक निबंध, पृ. 44.