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आधुनिक हिन्दी - जैन- गद्य - साहित्य का शिल्प-विधान
नाटक आदि नाटकों की सफल रचना की है। वैसे उनके नाटकों की भाषा-शैली पर पारसी थियेट्रीकल कंपनी के वातावरण का प्रभाव स्पष्ट लक्षित होता है। पद्यमय संवाद तथा शेरो-शायरी में ही प्रायः कथोपकथन आगे बढ़ते होने से कहीं-कहीं तो ऐसे संवाद अप्रतीतिकर या भद्दे से लगते हैं। संवादों में ग़ज़ल, के कारण उर्दू शब्दों का अधिकाधिक प्रयोग है। प्रत्येक पात्र की भाषा उर्दू प्रधान है अतः शरारत, मक्र, धोखा, दगा, फरेब, रिवा, यकायक याराना, जहूर, शरारत, इसद, आलम, बदजुबानी, बुज्जकीना आदि । उसी प्रकार कहीं-कहीं अंग्रेजी के शब्द थर्मोमीटर, चेइन्ज, एजन्ट, आदि शब्द प्रयोग भी प्राप्त होते हैं। पद्यमय संवाद का एक दृष्टान्त दृष्टव्य है- तिलकपुर पहुँच कर भविष्यदत्त जैन मंदिर देखता है तो यहाँ भगवान महावीर के चरणों में प्रणाम करता है
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(चाल) इन दिनों जोरो बनूं है तेरे दीवाने को ।
अय महावीर ! जमाने का दिनकर तू है । सारे दुःखियों के लिए एक दयाकर तू है। तूने पैगाम अहिंसा का सुनाया सबको, बस जमाने का हितोपदेशी सरासर तू है ।
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न्यातमत सिंह के सभी नाटकों की भाषा-शैली एक-सी है। सभी में पद्यमय काव्यत्वपूर्ण नहीं-संवाद, शेरो-शायरी - ग़ज़ल आदि का प्राधान्य, तथा प्रवाहपूर्ण शैली पाई जाती है। उनके नाटकों की भाषा-शैली का अध्ययन विवेचन आधुनिक युग के नाटकों के परिप्रेक्ष्य में नहीं किया जाना चाहिए, क्योंकि उस समय केवल नाटक साहित्य का प्रारंभ हो चुका था, लेकिन पाश्चात्य टेकनिक या शैली का प्रभाव अभी तक फैला नहीं था। बल्कि ऊपर बतलाया जा चुका है कि पारसी कम्पनी के सस्ते मनोरंजन प्रधान नाटकों का प्रभाव विशेष है। पद्यमय संवादों के लिए यह बात भी दर्शनीय है कि उस समय छोटे-छोटे गांवों में नौटंकी, रामलीला, यात्रादि के प्रयोगों में वार्तालाप पद्य में अधिक हुआ करते थे। उनका प्रभाव इन नाटकों पर भी देखा जाता है। अतः शेर, शायरी, गजलों का इतना खुलकर प्रयोग नाटककार ने रोचक ढंग से किया है। लोक नाटकों के प्रभाव स्वरूप नाच-गान, हंसी-मजाक ठिठोली का प्रभाव देखा जा सकता है। नाटकों में व्याकरण सम्बन्धी भूलें भी क्वचित दृष्टिगत होती हैं जो क्षम्य कही जायेंगी । यथा
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'तू तो क्षत्राणी है, दुःखों से क्या डरता है । प्रास - अनुप्रास का मेल रखने के लिए शब्दों का अंग-भंग या घटाने - बढ़ाने का क्रम तो पद्यमय संवाद के
न्यामत सिंह-श्रीपाल-मैनासुंदरी नाटक- एक्ट छठा, पृः 225.