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आधुनिक हिन्दी-जैन साहित्य
गुजराती शब्दों का प्रयोग भी इसमें हुआ है। यों तो साधारणतः खड़ी बोली है। बीच-बीच में जहाँ-तहाँ अंग्रेजी के शब्दों का भी प्रयोग खुलकर किया गया है। विशृंखलित कथा के रहने पर भी अभिनय किया जा सकता है।'
महासती अंजना का पौराणिक कथानक लेकर सुदर्शन जी एवं कन्हैयालाल जी ने क्रमशः 'अंजना' एवं 'अंजना सुंदरी' नाटक की रचना की है। वैसे दोनों नाटक अभिनेय हैं तथा आधुनिक भाषा-शैली से सज्ज हैं। दोनों की कथा में प्रवाह व औत्सुक्य, कथोपकथन में मार्मिकता, सजीवता व गति भी है, चरित्र-चित्रण में मनोवैज्ञानिक-विश्लेषण विद्यमान है, फिर भी सुदर्शन जी का नाटक अधिक साहित्यिक तथा कलापूर्ण है। भावों का उतार-चढ़ाव मर्मस्पर्शी
और संक्षिप्त संवाद इसका प्राण है। बीच-बीच में सुन्दर काव्य पंक्तियाँ संजोकर नाटक को साहित्यिक बनाया है। अंजना पति विरह में व्याकुल होकर गाती है
दिन बीते, रातें बीती, ऋतुएं बदली, महीने, वर्ष और युग बदले, किन्तु हाय! मुझ अभागिन का भाग्य नहीं बदलाशेर- तड़फती हूँ कि ज्यों, मछली बिन-पानी तड़फती है।
दरश पाने को प्रियतम के, अभागिन यह तड़फती है। हुई है जिन्दगी दूभर, नहीं कुछ भी सुहाता है।
विरह की वेदना से अब, कलेजा मुँह को आता है। 'कलेजा मुँह को आता-' मुहावरे का प्रयोग भी नाटककार ने अच्छी तरह से कर दिया। संवादों की भाषा कितनी संक्षिप्त, तीव्र और गति प्रेरक है इसका एक उदाहरण पवनंजय एवं वरुण के निम्नोक्त संवाद में देखिए
'वरुण- हः हः हः इतना भरोसा! पवन- नहीं! आत्म विश्वास। वरुण- इतना घमण्ड! पवन- नहीं! न्याय की ताकत। वरुण- यह ललकार। पवन- हाँ! अन्याय का प्रतिकार। वरुण- यह अरमान ? पवन- नहीं। न्याय का सम्मान।' (पृ. 64)।
आधुनिक हिन्दी जैन नाटकों की श्रीवृद्धि का श्रेय न्यामत सिंह को दिया जाना चाहिए। उन्होंने सती कमलश्री, विजयासुंदरी, सती मैना सुन्दरी, श्रीपाल 1. नेमिचन्द्र शास्त्री-हिन्दी जैन साहित्य परिशीलन-भाग 2, पृ० 113.